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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खिण्ड:१ चौथा शिखर भी फोड़ डाला। उसमें एक महाभयंकर, अत्यन्त कृष्णवर्ण दृष्टि-विष सर्प निकला । उसकी क्रोधपूर्ण दृष्टि पड़ते ही सारे व्यापारी सामान सहित जलकर भस्म हो गए। केवल चौथे शिखर को न तोड़ने की सम्मति देने वाला व्यापारी बचा। उसको सर्प ने सामान सहित उसके घर पहुंचाया। आनन्द ! उसी प्रकार तेरे धर्माचार्य और धर्मगुरु श्रमण ज्ञातपुत्र ने श्रेष्ठ अवस्था प्राप्त की है। देव-मनुष्यादि में उनकी कीर्ति तथा प्रशंसा है। पर, यदि वे मेरे सम्बन्ध में कुछ भी कहेंगे, तो अपने तप-तेज से उन व्यापारियों की तरह मैं उन्हें भस्म कर दूंगा । उस हितैषी व्यक्ति की तरह केवल तुझे बचा लूंगा। तू अपने धर्माचार्य के पास जा और मेरी कही हुई बात उन्हें सुना दे।" गोशालक की बात सुनकर आनन्द बहुत भयभीत हुए और उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर के पास आकर सारा वृत्त सुनाया। उन्होंने भगवान् महावीर से यह भी पूछा कि क्या गोशालक उन्हें भस्म कर सकता है ? महावीर बोले-"गोशालक अपने तप-तेज से किसी को भी एक प्रहार में कूटाघात (घन के आघात) के सदृश भस्म कर सकता है, परन्तु, अरिहन्त भगवान् को नहीं जला सकता है। उसमें जितना तप-तेज है, उससे अनगार का तप तेज अनन्तगुणित विशिष्ट है ; क्योंकि अनगार क्षमा द्वारा क्रोध का निग्रह करने में समर्थ है। अनगार के तप से स्थविर का तप, क्षमा के कारण अनन्त गुणित विशिष्ट है । स्थविर के तपोबल से अरिहन्त का तपोबल, क्षमा के कारण अनन्त गुणित विशिष्ट है ; अतः उनको कोई जला नहीं सकता, पर, परिताप अवश्य उत्पन्न कर सकता है । अतः तू जा और गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थों से यह बात कह"हे आर्यो ! गोशालक के साथ कोई भी धर्म सम्बन्धी प्रतिचोदना--उसके मत से प्रतिकूल वचन, धर्म-सम्बन्धी प्रतिसारणा-उसके मत से प्रतिकूल सिद्धान्त का स्मरण और धर्मसम्बन्धी प्रत्युपचार-तिरस्कार न करें; क्योंकि गोशालक ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के साथ म्लेच्छत्व तथा अनार्यत्व ग्रहण किया है।" प्रवृत्त-परिहार का सिद्धान्त आनन्द अनगार गौतम आदि मुनियों को उक्त समाचार दे रहे थे कि गोशालक अपने संघ से परिवृत्त हो कोष्ठक चैत्य में आ पहुँचा। वह भगवान् महावीर से कुछ दूर खड़ा रह कर बोला-"आयुष्मन् काश्यप ! मंखलिपुत्र गोशालक आपका धर्म-सम्बन्धी शिष्य था; आप जो ऐसा कहते हैं, वह ठीक है। परन्तु, आपका वह शिष्य शुद्ध और शुक्ल अभिजाति के साथ मृत्यु प्राप्त कर देव-लोक में देवरूप से उत्पन्न हुआ है। मैं तो कौण्डिन्यायन गोत्रीय उदायी हूँ। गौतमपुत्र अर्जुन के शरीर का परित्याग कर मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर में मैंने सातवें प्रवृत्त-परिहार-शरीरान्तर के रूप में प्रवेश किया है। हमारे सिद्धान्त के अनुसार जो कोई मोक्ष गए हैं, जाते हैं और जाएंगे; वे सभी चौरासी लाख महाकल्प (काल-विशेष), सात देव भव, संयूथ निकाय, सात संज्ञीगर्भ (मनुष्य-गर्भवास) और सात प्रवृत्त-परिहार कर; पाँच लाख साठ हजार छः सौ तीन कर्मभेदों का अनुक्रम से क्षय कर मोक्ष गए हैं तथा सिद्धबुद्ध-मुक्त हुए हैं। इसी प्रकार करते आए हैं तथा भविष्य में भी करेंगे। "..'कुमारावस्था में ही मुझे प्रव्रज्या व ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करने की इच्छा हुई। प्रव्रज्या ली। मैंने सात प्रवृत्त-परिहार किए। उनके नाम इस प्रकार हैं :-ऐणेयक, मल्लराम, मंडिक, रोह, भारद्वाज, गौतमपुत्र अर्जुन, मंखलिपुत्र गोशालक । प्रथम शरीरान्तर-प्रवेश ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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