________________
इतिहास और परम्परा]
गोशालक राजगृह के बाहर मंडिकुक्षि चैत्य में अपने कौण्डिन्यायन गोत्रीय उदायन का शरीर-त्याग कर ऐणेयक के शरीर में किया। बाईस वर्ष तक मैं उस शरीर में रहा। द्वितीय शरीरान्तरप्रवेश उद्दण्डपुर नगर के बाहर चन्द्रावतरण चैत्य में ऐणेयक के शरीर का परित्याग कर मल्लराम के शरीर में किया। उस शरीर में मैं इक्कीस वर्ष तक रहा। तृतीय शरीरान्तरप्रवेश चम्पानगरी के बाहर अंग-मंदिर चैत्य में मल्लराम का शरीर त्याग कर मंडिक के देह में किया। उसमें बीस वर्ष तक रहा। चतुर्थ शरीरान्तर प्रवेश वाराणसी नगरी के बाहर काम-महावन चैत्य में मंडिक के देह का त्याग कर रोह के शरीर में किया। उसमें उन्नीस वर्ष अवस्थित रहा। पांचवां शरीरान्तर-प्रवेश आलभिका नगरी के बाहर प्राप्तकाल चैत्य में रोह के देह का परित्याग कर भारद्वाज के शरीर में किया। इसमें अठारह वर्ष स्थित रहा। छट्ठा शरीरान्तर-प्रवेश वैशाली नगरी के बाहर कुंडियायन चैत्य में भारद्वाज का शरीर परित्याग कर गौतमपुत्र अर्जुन के शरीर में किया। उसमें सतरह वर्ष रहा। सातवां शरीरान्तर-प्रवेश इसी श्रावस्ती नगरी में हालाहला कुम्हारिन के कुम्भकारापण में गौतम-पुत्र अर्जुन का शरीर परित्याग कर कर मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर को समर्थ, स्थिर, ध्रुव, धारण-योग्य, शीतादि परिषहों को सहन करने योग्य तथा स्थिर संहनन-युक्त समझ, उसमें किया। अतः काश्यप ! मंखलिपुत्र गोशालक को अपना शिष्य कहना, इस अपेक्षा से अनुचित है।"
__ महावीर बोले-"गोशालक ! जिस प्रकार कोई चोर ग्रामवासियों से पराभूत होकर भागता हुआ किसी खड्डे, गुफा, दुर्ग, खाई या विषम स्थान के न मिलने पर ऊन, शण, कपास या तृण के अग्रभाग से अपने को ढांकने का प्रयत्न करता है, वह उनसे ढंका नहीं जाता, फिर भी अपने को ढंका हुआ मानता है, छिपा हुआ न होने पर भी छिपा हुआ समझता है, उसी प्रकार तू भी अपने को प्रच्छन्न करने का प्रयत्न कर रहा है और अपने को प्रच्छन्न समझ रहा है। अन्य नहीं होते हुए भी अपने को अन्य बता रहा है, ऐसा न कर। तू ऐसा करने के योग्य नहीं है।" ।
भगवान् महावीर का उपरोक्त कथन सुन कर गोशालक अत्यन्त क्रोधित हुआ और अनुचित शब्दों के साथ गाली-गलौज करने लगा। वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा और अत्यन्त निम्न स्तर पर उतर आया। वह बोला-"तू आज ही नष्ट, विनष्ट व भ्रष्ट होगा, ऐसा लगता है। कदाचित् तू आज जीवित भी नहीं रहेगा। तुझे मेरे द्वारा सुख नहीं मिल सकता।"
तेजोलेश्या का प्रयोग
- गोशालक की इस बात को सुन कर पूर्वदेशीय सर्वानुभूति अनगार से न रहा गया। वे स्वभाव से भद्र, प्रकृति से सरल व विनीत थे। अपने धर्माचार्य के अनुराग से गोशालक की धमकी की परवाह न कर उठे और उससे जाकर कहने लगे--“गोशालक ! किसी श्रमणब्राह्मण के पास से यदि कोई एक भी आर्य वचन सुन लेता है, तो भी वह उन्हें वन्दन-नमस्कार करता है। उन्हें मंगलरूप, कल्याण रूप व देव-चैत्य की तरह समझता है, पर्युपासना करता है। तेरा तो कहना ही क्या ? भगवान् ने तुझे दीक्षा दी, शिक्षित किया और बहुश्रुत बनाया। फिर भी तू उन्हीं अपने धर्माचार्य के साथ इस तरह की अनार्यता बरत रहा है ? तू वही गोशालक है, इसमें हमें जरा भी सन्देह नहीं है। इस प्रकार का व्यवहार तेरे योग्य
____Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org