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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
खण्ड:१
जहाँ शत्रु का शिविर लगना था, वहाँ पहले से ही स्वर्ण-मुद्राएं गड़वा दी। जब चण्डप्रद्योत ने राजगृह को घेर लिया, तो अभयकुमार ने उसे एक पत्र लिखा, जिसमें बताया-"मैं आपका हितैषी होकर बता रहा हूं कि आपके सहचर राजा श्रेणिक से मिल गये हैं । वे आपको बाँवकर श्रेणिक को सम्भलाने वाले हैं। उन्होंने श्रेणिक से बहुत धन-राशि ली है। विश्वास के लिए आपका जहाँ शिविर है, वहाँ को भूमि को खुदवा कर देखें।"
चण्डप्रद्योत ने भूमि खुदवाई तो हर स्थान पर उसे स्वर्ण मुद्राएँ गड़ी मिलीं। घबराकर वह ज्यों-का-त्यो उज्जैनी लौट गया।
अभयकुमार के सम्बन्ध से दोनों परम्पराओं में कोई भी धटना-साम्य नहीं है। केवल एक नगण्य-सी घटना दोनों परम्पराओं में यत्किचित समानता से मिलती है। बौद्ध परम्परा के अनुसार एक सीमा-विवाद को कुशलतापूर्वक निपटा देने के उपलक्ष में बिम्बिसार ने एक सुन्दर नर्तकी उसे उपहार में दी। जैन कथा-वस्तु के अनुसार श्रेणिक राजा के सेणा नामक एक बहिन थी। वह किसी विद्याघर को ब्याही थी। अन्य विद्याधरों ने सेणा को मार डाला और उसकी पुत्री को श्रेणिक के यहाँ भेज दिया। श्रेणिक ने वह कन्या पत्नी के रूप में अभयकुमार को प्रदान की।
बौड प्रव्रज्या
___ मज्झिम निकाय के अभयराजकुमार सुत्त में बताया गया है-एक समय भगवान् राजगृह में वेणुवन कलन्दक निवाप में विहार करते थे। तब अभयराजकुमार निगण्ठ नातपुत्त के पास गया। निगण्ठ नातपुत्त ने उससे कहा-"राजकुमार !श्रमण गौतम के साथ शास्त्रार्थ कर, इससे तेरा सुयश फैलेगा। जनता में चर्चा होगी, अभयराजकुमार ने इतने महर्दिक श्रमण गौतम के साथ शस्त्रार्थ किया है।"
अभयराजकुमार ने निगण्ठ नातपुत्त से पूछा-"भन्ते ! मैं शस्त्रार्थ का आरम्भ किस प्रकार करूँ?"
निगण्ठ नातपुत्त ने उत्तर दिया-"तुम गौतम बुद्ध से पूछना, 'क्या तथागत ऐसा वचन बोल सकते हैं, जो दूसरों को अप्रिय हो?' यदि श्रमण गौतम स्वीकृति में उत्तर दें, तो पूछना, 'फिर पृथग् जन (अज्ञ संसारी जीव) से तथागत का क्या अन्तर हुआ? ऐसे वचन तो पृथग्
१. उज्जैनी पहुँचकर चण्डप्रद्योत ने समझ लिया, यह सब अभयकुमार का ही षड्यन्त्र
था। क्रुद्ध होकर उसने भी एक षड्यन्त्र रचा और अभयकुमार को अपना बन्दी बनाया। मुक्त होकर अभयकुमार ने उसका बदला लिया। उसने भी छद्म-विधि से चण्डप्रद्योत को बन्दी बनाया। इस सरस वर्णन के लिये देखें, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, पर्व १०, सर्ग ११, श्लो० १२४ से २६३ तथा आवश्यक चूणि, उत्तरार्ध, पत्र १५६, से १६३ । २. धम्मपद-अठुकथा, १३-४ । ३. आवश्यक चूर्णि, उत्तरार्ध, पत्र १६० । ४. प्रकरण ७६।
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