________________
इतिहास और परम्परा ]
अनुयायी राजा
३०६ :
अभयकुमार की माता के विषय में यथार्थता क्या थी, यह कह पाना कठिन है। दोनों ही परम्पराएं दो प्रकार की बात कहती हैं । इतना अवश्य है कि जैन परम्परा का उल्लेख आगमिक है और बौद्ध परम्परा का उल्लेख अट्टकथा पर आधारित है। यक्ष का आना और श्रेणिक को उज्जैनी ले जाना यह सब भी किवदन्ती मात्र से अधिक नहीं ठहरता ।
प्रवृत्ति और व्यक्तित्व
बौद्ध परम्परा अभय को एक सामान्य राजकुमार से अधिक कुछ नहीं मानती । अधिकसे अधिक उसे रथ-विद्या- विशारद के रूप में प्रस्तुत करती है ।" जैन परम्परा बताती है - "श्रेणिक राजा का पुत्र तथा नन्दा देवी का आत्मज अभयकुमार अहोन यावत् सुरूप साम, दण्ड, भेद, उपप्रदान; नीति तथा व्यापार नीति का ज्ञाता था । ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा तथा अर्थ - शास्त्र में कुशल था । औत्पातिकी, वैनयिकी, कार्मिकी तथा पारिणामिकी; चार प्रकार की बुद्धियों से युक्त था । वह श्रेणिक राजा के लिये बहुत से कार्यों में, कौटुम्बिक कार्यों में, मन्त्रणा में, गुह्य कार्यों में, रहस्यमय कार्यों में, निश्चय करने में एक बार और बारबार पूछने योग्य था । वह सबके लिए 'मेढीभूत'' था, प्रमाण था, आधार था, आलम्बन था, चक्षुभूत था, सब कार्यों और सब स्थानों में प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाला था, सबको विचार देने वाला था, राज्य की धुरा को धारण करने वाला था; वह स्वयं ही राज्य ( शासन ), राष्ट्र (देश), कोष, कोठार ( अन्न भण्डार), सेना, वाहन, नगर और अन्त: पुर की देख-भाल करता
रहता था । "3
जैन मान्यता के अनुसार अभयकुमार श्रेणिक भंभसार का मनोनीत मत्रा था । " उसकी हर समस्या का स्वयं में ही वह एक समाधान था। मेघकुमार की माता धारिणी का दोहद तथा कूणिक की माता चेलणा का दोहद अपने बुद्धि-कल से अभयकुमार ने ही पूरा किया। अपनी चूल माता (छोटी माता ) चेलणा और श्रेणिक का विवाह भी अभयकुमार के बुद्धि-बल से हुआ ।" बुद्धि-बल के लिये अभयकुमार जैन परम्परा का प्रसिद्ध पुरुष कहा जा सकता है । अनेकानेक घटना-प्रसंग प्रचलित हैं, जो उसके बुद्धि-वैशिष्ट्य को व्यक्त करते हैं ।
अभयकुमार ने श्रेणिक के राजनैतिक संकट भी अनेक बार टाल थे। एक बार उज्जैनो के राजा चण्डप्रद्योत ने चौदह राजाओं के साथ राजगृह पर आक्रमण किया। अभयकुमार ने
१. मज्झिमनिकाय, अभयराजकुमार सुत्त ।
२. मेढी - खलियान में गाड़ा हुआ स्तम्भ, जिसके चारों ओर घूम-घूमकर बैल धान्य को रौंदते हैं।
३. णायाधम्मकहाओ, प्रथम श्रुतस्कन्ध, प्रथम अध्ययन ।
४. भरतेश्वर बाहुबली वृत्ति, पत्र, ३८ ।
५. 'भिक्षु संघ और उसका विस्तार' प्रकरण ।
६. देखिये, इसी प्रकरण के अन्तर्गत 'अजातशत्रु कूणिक' ।
७. त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्रम्, पर्व १०, सर्ग ६, श्लो० २२६-२२७, पत्र ७८-२ ।
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org