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१४६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १ राजा को सारी स्थिति का पता चला। उसे चिन्ता हुई। बोधिसत्त्व की विराग से रक्षा के निमित्त पहरा एक योजन तक बढ़ा दिया गया और कठोर कर दिया गया। भोगसामग्री विशेष रूप से बढ़ा दी गई।
बोधिसत्त्व फिर एक दिन उद्यान जा रहे थे। देवताओं द्वारा निर्मित संन्यासी को उन्होंने देखा। वह मुण्डित-सिर व काषाय वस्त्र पहने हुआ था । बोधिसत्त्व ने उसे देख कर सारथी से पूछा- "सौम्य ! यह पुरुष कौन है ? इसका सिर मुण्डित है तथा वस्त्र भी दूसरों से भिन्न है।"
सारथी ने कहा-"देव ! यह प्रवृजित है।" बोधिसत्त्व ने पूछा- सौम्य ! मनुष्य प्रवजित क्यों होता है ?"
सारथी ने सविस्तार उत्तर दिया-"देव ! यह धर्माचरण के लिए, शान्ति पाने के लिए, अच्छे कर्म करने के लिए, पुण्य-संचय के लिए, अहिंसा-पालन के लिए व भूतों पर अनुकम्पा करने के लिए प्रवजित हुआ है।"
बोधिसत्त्व सारथी के साथ तत्काल वहाँ आये । उस प्रवजित को गौर से देखा। उस से नाना प्रश्न पूछे। प्रव्रज्या के गुणों के बारे में छान-बीन की। बोधिसत्त्व को प्रव्रज्या में रुचि उत्पन्न हुई। वे इस बार तत्काल अन्तःपुर नहीं लौटे, अपितु उद्यान गये ।
दीघ भाणकों' का मत है कि बोधिसत्त्व ने चारों पूर्व लक्षणों को एक ही दिन देखा। पुत्र-जन्म
बोधिसत्त्व दिन भर उद्यान में आमोद-प्रमोदकरते रहे । सुन्दर पुष्करिणी में स्नान किया। संध्या के समय अपने को आभूषित कराने के उद्देश्य से सुन्दर शिला-पट पर बैठे। उनके परिचारक नाना रंग के दुशाले, नाना आभूषण, माला, सुगन्धित आदि लेकर चारों ओर से उन्हें घेर कर खड़े हो गये । इन्द्र का सिंहासन उस समय तप्त हुआ। "मुझे इस सिंहासन से कौन उतारना चाहता है"-इस तरह उसने आक्रोश पूर्वक सोचा। उसने तत्काल बोधिसत्त्व के अलंकृत होने का समय जाना । वह शान्त हो गया और उसने विश्वकर्मा को बुलाकर कहा"सौम्य ! आज आधी रात के समय सिद्धार्थ कुमार महाभिनिष्क्रमण करेंगे। आज का उनका यह अन्तिम शृंगार है । उद्यान में जाकर उन्हें दिव्य अलंकारों से अलंकृत करो।"
विश्वकर्मा देव-बल से तत्काल वहां पहुंचा। अपना वेष बदला और साज-सज्जा कराने वाले परिचारक का रूप धारण किया। परिचारिक के हाथ से दुशाला ले, बोधिसत्त्व के सिर पर बांधने लगा। हाथ के स्पर्श से ही वे जान गये, यह मनुष्य नहीं हैं, कोई देव-पुत्र है । पगड़ी से मस्तक को वेष्टित करते ही मस्तक पर मुकुट के रत्नों की भांति एक सहस्र दुशाले उत्पन्न हो गये । इसी तरह दस बार बाँधने पर दस सहस्र दुशाले उत्पन्न हो गये। सबसे बड़े दुशाले का भार श्यामा-लता के पुष्प के तुल्य व दूसरों का भार तो कुतुम्बक पुष्प के तुल्य था। बोधिसत्त्व का मस्तक किंजल्क-युक्त कुय्यक फूल के समान था । सब तरह से आभूषित हो जाने पर तालज्ञ ब्राह्मणों ने अपनी-अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया। सूतमागधों के नाना मांगलिक वचनों व स्तुति-घोषों से सत्कृत होते हुए वे सर्वालंकार विभूषित उत्तम रथ पर आरूढ़ हुए।
राहुलमाता ने उसी समय पुत्र-प्रसव किया। राजा शुद्धोदन को जब यह संवाद ज्ञात हुआ तो उसने अपने अनुचरों को निर्देश दिया -"उद्यान में सैर कर रहे मेरे पुत्र को यह सुखद संवाद सुनाओ।' अनुचर दौड़े-दौड़े वहाँ आये और बोधिसत्त्व को वह शुभ संवाद
१. दीघ निकाय कन्ठस्थ करने वाले पुराने आचार्यों को दीर्घ भाणक, कहा जाता है।
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