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इतिहास और परम्परा
जन्म और प्रव्रज्या सुनाया। बोधिसत्त्व के उद्गार निकले-"राहु-बन्धन पैदा हुआ है।" अनुचर पुनः राजा के पास पहुँचे । राजा ने बोधिसत्त्व की प्रतिक्रिया को जानना चाहा। अनुचरों ने सारा वृत्त सुनाया। राहु शब्द के आधार पर पौत्र का राहल कुमार नामकरण किया गया।
बोधिसत्त्व नगर में प्रविष्ट हुए। क्षत्रिय-कन्या कृशा गौतमी उस समय प्रासाद पर बैठी नगरावलोकन कर रही थी। नगर-परिक्रमा करते हए बोधिसत्व की रूप-शोभा को देखकर बहत ही प्रसन्नता व्यक्त की तथा हर्ष से उसने उदान' कहा- वे माता-पिता परम शान्त हैं, जिनके इस प्रकार का पुत्र है। वह नारी परम शान्त है, जिसके इस प्रकार का पति है।"वह उदान बोधिसत्त्व के कानों में पडा। उनका चिन्तन उस पर केन्द्रित हो गया। वे मोचने लगे-किसके शान्त होने पर हदय परम शान्त होता है ? रागादि क्लेशों से विरक्त होते हु हुए उन्होंने गहरा चिन्तन किया-"राग, द्वेष और मोह की अग्नि के शान्त होने पर परम शान्ति होती हैं । अभिमान, मिथ्या विचार (दृष्टि) आदि सभी मलों के उपशमन होने पर परम शान्ति होती हैं । यह मुझे प्रिय वचन सुना रही है । मैं निर्वाण को ढूंढ़ रहा हूँ। आज ही मुझे गृह-वास छोड़ प्रवजित हो, निर्वाण की खोज में लगना चाहिए । उन्होंने अपने गले से एक लाख मूल्य का मोती का हार उतारा और गुरु-दक्षिणा के रूप में कृशा गौतमी के पास भेज दिया। हार को पाकर वह बहुत प्रसन्न हुई। उसने सोचा - सिद्धार्थ कुमार ने मेरे प्रेम में आकर्षित होकर यह उपहार भेजा है। गृह-त्याग
___ बोधिसत्त्व महलों में लौट आए । सुकोमल शय्या पर लेट गये। उसी समय सब तरह से अलंकृत, नृत्य-गीत आदि में दक्ष अप्सरा-तुल्य परम सुन्दरी स्त्रियों ने विविध वाद्यों के साथ कुमार को घेर लिया। उन्हें परम प्रसन्न करने के लिए नृत्य, गीत व वाद्य आरम्भ किये। बोधिसत्त्व रागादि मलों से विरक्त चित्त थे; अतः नृत्य आदि में उनकी कोई रुचि नहीं हुई। वे शीघ्र ही सो गये । नर्तिकाओं ने सोचा-अब हम कष्ट क्यों उठायें; जबकि जिनके लिए हम कर रही हैं, वे स्वयं ले गए हैं। वे सभी साज-समान के साथ उसी कक्ष में लेट गई । सुगन्धित तेल से परिपूर्ण दीप जल रहे थे । बोधिसत्व जग पड़े। पल्यंक पर आसन मारकर बैठ गये। उनकी दृष्टि कक्ष में लेटी उन स्त्रियों पर पड़ी। बोधिसत्त्व ने उस दृश्य को गम्भीरता से देखा। कुछ स्त्रियों के मुंह से लार और कफ बह रहा था; अतः शरीर भींग गया था। कुछ एक दांत पीस रही थीं; कुछ एक खाँस रही थीं तथा कुछ एक बर्रा रही थीं। कुछ एक के मुंह खुले हुए थे तथा कुछ एक के वस्त्र इतने अस्त-व्यस्त हो गए थे कि दर्शक उन्हें देख नहीं पाता था। स्त्रियों की इस सविकार प्रवृत्ति को देखकर वे और भी अधिक दृढ़ता-पूर्वक काम-भोगों से विरक्त हो गये। उस समय उन्हें वह सुअलंकृत महाभवन सड़ती हुई नाना लाशों से पूर्ण कच्चे श्मशान की भाँति प्रतीत हो रहा था। उन्हें तीनों ही भवन जलते हुए घर की तरह दिखलाई पड रहे थे। उनके मुंह से अनायास ही "हा! कष्ट, हा ! शोक" आह निकल पड़ी। उनका चित्त प्रव्रज्या के लिए अत्यन्त आतुर हो गया। मुझे आज ही गृह-त्याग करना है, इस दृढ़ निश्चय से वे पल्यंक से उतरे और द्वार के समीप जाकर पछा--"कौन है?"
ड्योढ़ी में सिर रखकर सोये हुए छन्न ने कहा-"आर्यपुत्र ! मैं छन्दक हूँ।"
बोधिसत्त्व ने कहा—“आज मैं अभिनिष्क्रमण करना चाहता हूँ। मेरे लिए एक घोड़ा तैयार करो।" १. आनन्दोल्लास से निकली वाक्यावलि ।
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