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________________ १४८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : १ छन्दक अश्व की साज-सज्जा का सामान ले अश्वशाला में गया । सुगन्धित तेल के जलते दीपों के प्रकाश में बेल-बूटे वाले चंदवे के नीचे रमणी भूमि पर खड़े अश्वराज कथक को देखा। छन्दक ने उसे ही उपयुक्त समझा। सब तरह से उसे सजाया और अच्छी तरह से कसा। कन्थक के मन में सहज ही विचार आया, आज की तैयारी अन्य दिनों से भिन्न है। मेरे आर्यपुत्र उद्यान-यात्रा आदि में न जाकर महाभिनिष्क्रमण के इच्छुक होंगे। वह प्रसन्न चित्त हो हिनहिनाया। वह शब्द सारे शहर में फैल जाता, किन्तु, देवताओं ने उसे रोक लिया, किसी को सुनने नहीं दिया। छन्दक जैसे ही कन्थक को तैयार करने के लिए गया बोधिसत्त्व पुत्र की देखने की अभिलाषा से अपने आसन को छोड़ राहुल-माता के वास-स्थान की ओर गये । शयनागार का द्वार खोला। वहाँ सुगन्धित तेल-प्रदीप जल रहे थे। राहुल-माता बेला, चमेली आदि अम्मन भर फूलों से सजी शैय्या पर पुत्र के सिर पर हाथ रखकर सो रही थीं। बोधिसत्त्व ने देहली में खड़े होकर उन दोनों को देखा। वे राहुल को लेना चाहते थे। किन्तु, दूसरे ही क्षण उनके मन में विचार आया, “यदि मैं देवी के हाथ को हटाकर अपने पुत्र को लूंगा तो देवी जग पड़ेगी। मेरे अभिनिष्क्रमण में यह विघ्न होगा। बुद्ध होने के पश्चात् ही यहाँ आकर पुत्र को देखूगा।" प्राचीन सिंहल भाषा की जातक कथा के अभिमतानुसार राहुल कुमार की अवस्था उस समय एक सप्ताह की थी। __ बोधिसत्त्व महलों से उतर आए । कन्थक के पास आये और उससे कहा-"तात ! कन्थक ! आज तू मुझे एक रात में तार दे। मैं तेरे इस सहयोग से बुद्ध होकर देवताओं सहित सारे लोक को ताऊँगा।' वे तत्काल उछले और कन्थक की पीठ पर सवार हो गये । कन्थक गर्दन से पूंछ तक अठारह हाथ लम्बा था। महाकाय, बल-वेग-सम्पन्न वधुले हुए शंख सदृश श्वेत वर्ण का था। यदि वह हिनहिनाता या पैर खटखटाता तो वह शब्द सारे नगर में फैल जाता। वह उस समय भी हिनहिनाया, किन्तु, देवों ने उसके शब्द को वहीं रोक लिया। जहाँ-जहाँ घोड़े के पैर पड़े वहाँ-वहां देवों ने अपनी हथेलियाँ रख दीं। शब्द नहीं हुआ। निःशब्द स्थिति में बोधिसत्त्व ने वहाँ से प्रस्थान किया। छन्दक ने कथक की पूंछ पकड़ी। तीनों प्राणी आधी रात के समय महाद्वार के समीप पहुंचे। राजा को यह आशंका थी कि बोधिसत्व कहीं रात-बिरात नगर-द्वार को खोलकर अभिनिष्क्रमण न कर दे ; अतः दरवाजों के कपाटों को इतना सुदृढ़ बनवा दिया कि एक हजार मनुष्यों की शक्ति के बिना वे खुल न सकें । बोधिसत्त्व महाबल-सम्पन्न दस अरब हाथियों के बल के बराबर व पुरुषों के बल से एक खरब पुरुषों के बराबर बलिष्ठ थे । द्वार पर पहुँच कर बोधिसत्त्व ने सोचा-"यदि द्वार न खुल सका तो कन्थक की पीठ पर बैठे ही, पूंछ पकड़ कर लटकते हुए छन्दक को साथ लिये, घोड़े को जाँघ से दबाकर अठारह हाथ ऊँचे प्राकार को कूद कर पार करूँगा" छन्दक ने सोचा-यदि द्वार न खुला तो मैं आर्यपुत्र को कंधे पर बैठाकर, कन्थक को दाहिने हाथ से बगल में दबाकर प्राकार को लांघ जाऊँगा।" कन्थक ने भी सोचा--- "यदि द्वार न खुला तो स्वामी को अपनी पीठ पर वैसे ही बैठाये,पूंछ पकड़ कर लटकते छन्दक के साथ ही प्राकार को लांघ जाऊँगा।' यदि द्वार न खुलता तो तीनों में से प्रत्येक उपर्युक्त चिन्तन के अनुसार प्रवृत्ति करते। किन्तु, ऐसा प्रसंग नहीं आया। द्वार पर रहने वाले देवों ने तत्काल कपाट खोल दिये। १ ११ द्रोण-१ अम्मन । २. १४० हाथ-१ ऋषभ । ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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