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इतिहास और परम्परा
जन्म और प्रव्रज्या
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बोधिसत्त्व को वापिस लौटाने की इच्छा से मार आकाश में आकर खड़ा हुआ। उसने कहा-"मित्र ! राज्य छोड़ मत निकलो। आज से सातवें दिन तुम्हारे लिए चक्र-रत्न प्रकट होगा। दो हजार छोटे द्वीपों और चार महाद्वीपों पर तुम्हारा अखण्ड साम्राज्य होगा। मित्र ! लौट आओ। आगे न बढ़ो।"
बोधिसत्त्व-"तुम कौन हो?" मार---मैं वशवर्ती हूँ।"
बोधिसत्त्व---मैं भी जानता हूँ कि मेरे लिए चक्र-रत्न प्रकट होगा। किन्तु, मुझे राज्य से कोई प्रयोजन नहीं है । मैं तो साहस्रिक लोक धातुओं को निनादित करता हुआ बुद्ध बनूंगा।"
"आज से कभी भी तुम्हारे मन में कामना, द्रोह या हिंसा-सम्बन्धित वितर्क उत्पन्न नहीं होंगे, तब मैं तुझे समझंगा।" बोधिसत्त्व को मार ने इन शब्दों में चुनौती दी और अवसर की ताक के लिए शरीर-छाया की भाँति उनका पीछा करने लगा।
बोधिसत्त्व ने हस्तगत चक्रवर्ती-राज्य को ठुकरा कर, उसे थूक की भांति छोड़कर आषाढ़ पूर्णिमा को उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में नगर से निर्गमन किया। नगर से निकलते ही उनके मन में नगरावलोकन की पुनः अभिलाषा जागृत हुई । उसी समय महापृथ्वी कुम्हार के चक्र की तरह कांपने लगी । मानो वह कह रही हो, “महापुरुष ! लौट कर देखने का कार्य तूने अपने जीवन में कभी नहीं किया।" बोधिसत्व ने जहाँ से मुंह घुमा कर नगर को देखा था, उस भूप्रदेश में 'कन्थक-निवर्तक-चैत्य' का चिह्न बन गया । गन्तव्य की ओर कन्थक का मुंह फेरा और अत्यन्त सत्कार और महान् श्री के साथ आगे चल पड़े। उस समय साठ-साठ हजार देवता आगे पीछे, दाँये और बांये मशाल हाथ में लिए चल रहे थे। चक्रवालों के द्वार-समूह पर अपरिमित मशालों को जलाया। बहुत सारे देवों तथा नाग, सुपर्ण (गरुड़) आदि ने दिव्य गंध, माला, चूर्ण, धूप से पूजा करते हुए पारिजात पुष्प, मन्दार पुष्प की वृष्टि कर आकाश को आच्छादित कर दिया। दिव्य संगीत हो रहा था। चारों ओर आठ प्रकार के व साठ प्रकार के अड़सठ लाख वाद्य बज रहे थे। विशिष्ट श्री और सौभाग्य के साथ प्रस्थान करते हुए बोधिसत्त्व एक ही रात में शाक्य, कोलिय और राम-ग्राम-इन तीन राज्यों को पार कर तीस योजन दूर अनोमा नदी के तट पर पहुँच गये।
कन्थक अपरिमित बल-सम्पन्न था। वह प्रातः प्रस्थान कर एक चक्रवाल के मध्यवर्ती घेरे को पृथ्वी पर रहे चक्के की तरह मदित करता हुआ उसके प्रत्येक कोने पर घूम कर, अपने भोजन के समय पुनः लौट सकता था। किन्तु, इस समय वह केवल तीस योजन ही चल सका। आकाश-स्थित देव, नाग व गरुड़ आदि द्वारा बरसाये गये गंधमाला आदि से वह जंघा तक ढंक गया था । पुनः-पुनः उसमें से अपने को निकालते हुए व गंधमाला के जाल को हटाते हुए उसे काफी समय लग गया। प्रव्रज्या -ग्रहण
बोधिसत्त्व ने नदी के तट पर खड़े होकर छन्दक से नदी का नाम पूछा । छन्दक ने उत्तर दिया-"अनोमा।" बोधिसत्त्व ने तत्काल सोचा-हमारी प्रव्रज्या भी अनोमा'-- छोटी नहीं होगी। उन्होंने उसी समय एड़ी से रगड़ कर घोड़े को संकेत किया । घोड़े ने तत्काल छलांग भरी और आठ ऋषभ चौड़ी नदी के दूसरे तट पर जा खड़ा हुआ। बोधि१. अनोमा=अन्+अवम् । २. १४० हाथ-1 ऋषभ ।
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