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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड :१
सत्त्व घोड़े से उतरे व रुपहले रेशम की तरह सुकोमल बालुका-तट पर खड़े हुए। छन्दक को सम्बोधित करते हुए कहा-"सौम्य ! छन्दक ! तू मेरे आभूषणों तथा कन्थक को ले जा । मैं प्रव्रजित होऊँगा।
छन्दक ने कहा--"देव ? मैं भी प्रबजित होऊंगा।'
बोधिसत्त्व ने स्पष्ट तया तीन बार कहा-"तुझे प्रव्रज्या नहीं मिल सकती । तू यहाँ से लौट जा।"
छन्दक को बोधिसत्त्व का वह निर्देश शिरोधार्य करना पड़ा। आभूषण और कन्थक को सौंपकर वे सोचने लगे-"मेरे ये केश श्रमण-भाव के योग्य नहीं हैं । बोधिसत्त्व के केशकर्तन के लिए असि के अतिरिक्त दूसरा कोई उपयुक्त साधन नहीं है; अतः मुझे असि से ही काटना चाहिए।" उन्होंने दाहिने हाथ में तलवार लिया और बाँये हाथ में मौर-सहित जुड़े को पकड़ा व उसे काट डाला। केवल दो अंगुल-प्रमाण केश रहे जो दाहिनी ओर से घूम कर सिर में चिपट गए। जीवन-पर्यन्त उनके केशों का यही परिमाण रहा। मूंछ और दाढ़ी भी उसी परिमाण से रहे । उन्हें अब सिर-दाढ़ी के मुण्डन की कोई आवश्यकता नहीं रही।
मौर-सहित जुड़े को बोधिसत्त्व ने आकाश में यह सोचते हुए फेंक दिया कि यदि मैं बुद्ध होऊँ तो यह आकाश में ही ठहरे अन्यथा भूमि पर गिर जाए। वह चूडामणि-वेष्टन योजन तक आकाश में जाकर ठहर गया। देवराज शक्र ने अपनी दिव्य दृष्टि से उसे देखा। उसे उपयुक्त रत्नमय करण्ड में ग्रहणकर शिरोधार्य किया और त्रयस्त्रिश स्वर्ग में चूडामणि चैत्य की स्थापना की।
बोधिसत्त्व ने पुनः सोचा-"काशी के बने ये वस्त्र भिक्षु के योग्य नहीं हैं।" तब कश्यप बुद्ध के समय के उनके पुराने मित्र घटिकार महाब्रह्मा ने सोचा- "मेरे मित्र ने आज अभिनिष्क्रमण किया है ; अतः मैं उसके लिए भिक्षु की आवश्यकताएँ (श्रमणपरिष्कार) ले चलूंगा।" उसने तत्काल तीन चीवर, पात्र, उस्तरा, सुई, काय-बन्धन और पानी छानने का वस्त्र, ये आठ परिष्कार तैयार किए और बोधिसत्त्व को दिए। बोधिसत्त्व ने अर्हत ध्वजा को धारण कर अर्थात श्रेष्ठ प्रव्रज्या-वेश को ग्रहण कर छन्दक को प्रेरित किया..."छन्दक! मेरी बात से माता-पिता को आरोग्य कहना।"
छन्दक ने बोधिसत्त्व को वन्दना तथा प्रदक्षिणा की और चल दिया। कन्दक ने भी बोधिसत्त्व और छन्दक के बीच हुई बात को सुना। अब मुझे पुनः स्वामी के दर्शन नहीं होंगे, जब उसे यह ज्ञात हुआ, वह उस शोक को सहन सका । तत्काल कलेजा फट गया और वह मरकर त्रयस्त्रिश भवन में कन्थक नामक देव-पुत्र हुआ। छन्दक को पहले एक ही शोक था, किन्तु, कन्थक की मृत्यु से वह दूसरे शोक से भी पीड़ित हुआ वह रोता हुआ नगर की ओर चला।
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