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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ के राजकुमार मन-ही-मन हँसा । वह वैराग्य से पूर्णतः मावित हो रहा था । साहस साथ बोला "ज्योति के समक्ष क्या कभी निबिड़ तम का अस्तित्व टिक पाया है ? हवा के झोंकों के सम्मुख घुमड़ते और कजरारे बादल अपना अस्तित्व कितने समय स्थिर रख पाए हैं ? मैं दीक्षित होते ही जब घोर तपश्चर्या करूँगा, कौन से कर्म कितने दिन रह पाएँगे ? भविष्य का आधार वर्तमान के अतिरिक्त कहाँ हो सकता है ? मैं अपने प्रत्येक क्षण को सावधानीपूर्वक तपश्चर्या के साथ स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग में नियोजित करूँगा । किसी भी अनिष्ट की आशंका को वहाँ स्थान ही नहीं रहने दूंगा ।" १८२ अनुकूल व प्रतिकूल सहयोग की उपेक्षा करता हुआ दृढ़प्रतिज्ञ नन्दीसेन भगवान् महावीर के समवशरण में पहुँचा और उत्कट वैराग्य के साथ दीक्षित हो गया । अनिष्ट की सम्भावना व्यक्ति को प्रतिक्षण जागरूक रखती है । नन्दीसेन देव-वाणी को अन्यथा प्रमाणित करने के लिए तपश्चरण में लीन हो गया । उसने अपने हृष्ट-पुष्ट व तेजस्वी शरीर को अत्यन्त कुश व कांति विहीन कर दिया । केवल अस्थियों का ढाँचा ही दिखाई देता था । वह सर्वथा एकान्त में रहता और आत्म-स्वरूप का ही चिन्तन करता । पक्ष पक्ष, मास-मास की तपस्या के अनन्तर एक बार बस्ती में गोचरी के लिए जाता और पुनः शीघ्र ही आकर अपने अध्यात्म-चिन्तन में लीन हो जाता था । इससे उसे तपोजन्य बहुत सारी लब्धियाँ प्राप्त हो गई । सत्कार्य करते हुए भी व्यक्ति कभी-कभी अपने मार्ग से च्युत हो जाता है और अनालोचित चक्र में फँस जाता है । नन्दीसेन एक दिन गोचरी के लिए बस्ती में आया । संयोगवश वह एक गणिका के घर पहुँच गया । घर में उसे एक महिला मिली। उसने अपनी सहज वाणी में पूछा - "क्या मेरे योग्य यहाँ आहार मिल सकता है ?" गणिका ने भौंड़ी शक्ल और दीन अवस्था में नन्दीसेन को देखकर तपाक से उत्तर दे दिया" जिसके पास सम्पत्ति का बल है, उसके लिए यहाँ सब कुछ मिल सकता है, किन्तु जो दरिद्र है, वह मेरे जीने में भी पैर नहीं रख सकता ।" वेश्या के कथन से नन्दीसेन का अहं जागृत हो गया। उसके मन में आया, इसने मुझे नहीं पहचाना । मेरे तपःप्रभाव से यह अनभिज्ञ है । अवसर आ गया है; अतः कुछ परिचय मुझे देना चाहिए। नन्दीसेन ने भूमि पर पड़ा एक तिनका उठाया। उसे तोड़ा । तत्काल स्वर्णमुद्रायें बरस पड़ीं । वेश्या ने नन्दीसेन की ओर देखा और नन्दीसेन ने वेश्या की ओर । वह एक बार समझ नहीं पाई कि यह स्वप्न है या वास्तविकता, किन्तु, उसने बड़ी पटुता से स्थिति को सम्भाला । तत्क्षण आगे आई और नन्दीसेन को अपने प्रति अनुरक्त करने के लिए विविध प्रयत्न करने लगी । यह अनुराग और विराग का स्पष्ट संघर्ष था । एक ओर वर्षों की कठोर साधना थी और दूसरी ओर दो क्षण का मधुर व्यवहार । नन्दीसेन अपनी साधना को भूल गया । उसने वेश्या द्वारा रखा गया सहवास का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया । साधना से विचलित होता हुआ नन्दीसेन कुछ समय आकर्षण और विकर्षण के झूले में झूलता रहा । उसने उस समय एक प्रतिज्ञा की "प्रति दिन दस व्यक्तियों को प्रतिबोध देकर प्रव्रज्या के लिए भगवान् महावीर के समवशरण में भेजूंगा । जब तक यह कार्य न हो जाएगा, तब तक भोजन नहीं करूँगा । " नन्दीसेन अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहा । वह प्रतिदिन दस-दस व्यक्तियों को निर्ग्रन्थ धर्म Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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