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४०२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १ गणाधिपति, गणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, तीर्थङ्कर और बहुजन-सम्मत, पूरणकस्सप, मक्खलि गोशाल, निगण्ठ नातपुत्त, संजय वेलट्ठिपुत्त, पकुघ कच्चायन, अजित केसकम्बली आदि से भी ऐसा पूछा जाने पर, वे अनुत्तर सम्यग् सम्बोधि-प्राप्ति का अधिकार-पूर्वक कथन नहीं करते हैं। आप तो अल्पवयस्क व सद्यः प्रवजित हैं। फिर यह कैसे कह सकते हैं ?"
बुद्ध ने कहा- "क्षत्रिय, सर्प, अग्नि व भिक्षु को अल्पवयस्क समझकर कभी भी उनका परिभव व अपमान नहीं करना चाहिए। कुलीन, उत्तम, यशस्वी क्षत्रिय को अल्प-वयस्क समझना भूल है । हो सकता है, समयान्तर से वह राज्य-प्राप्त कर मनुष्यों का इन्द्र हो जाये और उसके बाद तिरस्कर्ता का राज-दण्ड के द्वारा प्रतिशोध ले। अपने जीवन की रक्षा के लिए इससे बचना आवश्यक है। गांव हो या अरण्य, सर्प को भी छोटा नहीं समझना चाहिए। सर्प नाना रूपों से तेज में विचरता है। समय पाकर वह नर, नारी, बालक आदि को डंस सकता है। जीवन रक्षा के निमित्त इससे बचना मी आवश्यक है। बहभक्षी कृष्णवर्मा पावक को दहर नहीं समझना चाहिए। सामग्री पाकर वह अग्नि सुविस्तृत होकर नर-नारियों को जला देती है; अत: जीवन रक्षा के निमित्त इससे बचना भी आवश्यक है। अग्नि वन को जला देती है। अहोरात्र बीतने पर वहाँ अंकुर उत्पन्न हो जाते हैं । किन्तु, शील-सम्पन्न भिक्षु अपने तेज से जिसे जला डालता है, उसके पुत्र, पशु तक भी नहीं होते। उसके दायाद भी धन नहीं पाते। वह निःसंतान और निर्धन सिर कटे ताल वृक्ष जैसा हो जाता है। अतः पण्डितपुरुष अपने हित का चिन्तन करता हुआ भुजंग, पावक, यशस्वी क्षत्रिय और शील-सम्पन्न भिक्ष के साथ अच्छा व्यवहार करे।"
राजा प्रसेनचित् कौशल ने कहा- "आश्चर्य भन्ते ! आश्चर्य भन्ते ! जैसे औंधे को सीधा कर दे, आवृत्त को अनावृत्त कर दे, मार्ग-विस्मृत को मार्ग बता दे, अंधेरे में तेलप्रदीप दिखा दे, जिससे सनेत्र देख सकें, वैसे ही भन्ते ! भगवान् ने अनेक प्रकार से धर्म को प्रकाशित किया है। भन्ते ! मैं भगवान की शरण जाता हूँ, धर्म की शरण जाता हूँ और भिक्ष-संघ को शरण जाता हूँ। आज से जीवन-पर्यन्त मुझे शरणागत उपासक स्वीकार
करें,
-संयुत्त निकाय, दहरसुत्त, ३-१-१ के आधार से।
समीक्षा सब धर्मनायकों में बुद्ध की कनिष्ठता का यह एक ज्वलन्त प्रमाण है। महावीर और बुद्ध की समसामयिकता के निर्णय में डा० जेकोबी आदि ने इस प्रसंग को छूआ तक नहीं है। यह उन्हें सुलभ हुआ होता, तो संभवतः वे भी महावीर की ज्येष्ठता निर्विवाद सिद्ध करते।
२४. सभिय परिव्राजक
एक बार भगवान् बुद्ध राजगृह में वेलुवन कलन्दक निवाप में विहार कर रहे थे।
१. इस प्रसंग पर विशेष चर्चा के लिए देखें, 'काल निर्णय' प्रकरण के अन्तर्गत 'महावीर
की ज्येष्ठता' (पृ० ८६-७)।
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