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________________ इतिहास और परम्परा ] त्रिपिटकों में निंगण्ठ व निगण्ठ नातपुत ४०१ नहीं करता, तो आज इसे इसी आसन पर बैठे-बैठे विरज, विमल घर्म चक्षु उत्पन्न हो जाता ।" -दीघ निकाय, सामञ्जफल सुत्त, १-२ के आधार से । समीक्षा सामञ्जफल सुत्त की समीक्षा पूर्व के समसामयिक धर्म-नायक व काल निर्णय प्रकरणों में अनेक पहलुओं से की जा चुकी हैं । महावीर को चातुर्याम धर्म का निरूपक बतलाना इस बात की ओर संकेत करता है कि बौद्ध भिक्षु पार्श्वनाथ' की परम्परा से संपृक्त रहे हैं और महावीर के धर्म को भी उन्होंने उसी रूप में देखा है, जबकि वह पञ्चशिक्षात्मक था । चार याम जो यहाँ बताये गए हैं, वे यथार्थ नहीं हैं । तथाप्रकार की व्रत- परिकल्पना और भी किसी नाम से जैन- परम्परा में नहीं मिलती। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि शीतोदक- वर्जन आदि के रूप में ये चार निषेध जैन- परम्परा से विरुद्ध नहीं हैं । चूलसुकुलदायि सुत्त और ग्रामणी संयुत्त में प्राणातिपात, अदत्तादान, कामेसुमिच्छाचार व मुसावाद से निवृत्त होने का उल्लेख है, पर, वहाँ 'चातुर्याम' शब्द का प्रयोग नहीं है । महावीर का नाम अजातशत्रु को किस मंत्री ने सुझाया, यह उक्त प्रसंग में नहीं है, पर, महायान - परम्परा के अनुसार उक्त सुझाव अभयकुमार ने दिया था । यहाँ अन्य सभी धर्म - नायकों को चिर-प्रव्रजित और वयोऽनुप्राप्त कहा गया है, पर, बुद्ध के लिए जीवक ने इन विशेषणों का प्रयोग नहीं किया है। इससे सूचित होता है, इन सबकी अपेक्षा में बुद्ध तरुण थे । २३. बुद्ध : धर्माचार्यों में कनिष्ठ 1 एक बार भगवान् बुद्ध श्रावस्ती में अनाथपिण्डिक के जेतवन में विहार कर रहे थे राजा प्रसेनजित् कौशल भगवान् के पास गया, कुशल प्रश्न पूछे और जिज्ञासा व्यक्त की"गौतम ! क्या आप भी अधिकार- पूर्वक यह कहते हैं, आपने अनुत्तर सम्यग् सम्बोधि को प्राप्त कर लिया है ?" भगवान् ने उत्तर दिया- "महाराज ! यदि कोई किसी को सचमुच सम्यग् कहे तो वह मुझे ही कह सकता है । मैंने ही अनुत्तर सम्यग् सम्बोधि का साक्षात्कार किया है।" राजा प्रसेनजित् कौशल ने कहा - " गौतम ! दूसरे श्रमण-ब्राह्मण, जो संघ के अधिपति, १. चाउज्जामो य जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खिओ । देसिओ वद्धमाणेण, पासेण य महामुनी ॥ - उत्तराध्ययन सूत्र, अ० २३, गाथा २३ २. मज्झिमनिकाय, ७६ तथा इसी प्रकरण में सम्बन्धित प्रसंग - संख्या १३ । ३. इसी प्रकरण में सम्बन्धित प्रसंग - संख्या ६ । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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