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इतिहास और परम्परा]
प्रमुख उपासक-उपासिकाएं
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विशाखा ने विनम्रता से कहा-"ऐसा आपने क्या देखा?"
पुरुषों ने कहा---"तुम्हारे साथ क्रीड़ा करने वाली दूसरी कुमारियाँ भीगने के भय से शीघ्रता से चल कर शाला में दौड़ आई और तुम वृद्धा की तरह मन्द-मन्द चलती रहीं, तुमने साड़ी के भीगने की भी परवाह नहीं की। यदि हाथी या घोड़ा भी तुम्हारा पीछा करे तो भी क्या तुम ऐसा ही करोगी?"
विशाखा की वाणी में कोमलता थी। उसने शालीनता से कहा-.-"तातो ! मेरे लिए साड़ियां दुर्लभ नहीं हैं । तरुण स्त्री बिकाऊ बर्तन की तरह होती है । हाथ-पैर टूट जाने से वह विकलांग हो जाती है । लोग उससे घृणा करने लग जाते हैं और उसे कोई ग्रहण नहीं करते, मेरी मन्द गति का यही कारण है।"
आगन्तुक लोगों को गहरा सन्तोष हुआ । उन्हें दृढ़ विश्वास हुआ, यह जैसी रूप में है. वैसी ही आलाप में मधर है। सब कछ विचारपर्वक ही कहती है। उन्होंने माला को गुंडेर कर उसके ऊपर से फेंका। विशाखा को अनुभव हुआ, मैं पहले अपरिगृहीता थी और अब पलिहोता हो गई हूँ। वह संकोचवश भूमि पर वहीं बैठ गई। उसे कनात से घेर दिया गया। वह दासियों से परिवत अपने घर लौट आई।
मृगार श्रेष्ठी के वे पुरुष धनंजय श्रेष्ठी के घर आये । परस्पर परिचय का आदानप्रदान हुआ । धनंजय श्रेष्ठी ने आगमन का कारण पूछा। उन्होंने अपना उद्देश्य प्रस्तुत करते हुए कहा--- "हमारे सेठ के पूर्णवर्द्धन कुमार है । वह स्वास्थ्य सौन्दर्य और गुण में श्रेष्ठ है। आपकी कन्या और हमारे कुमार यदि प्रणय-सूत्र में आबद्ध हो जायें, तो यह दोनों के लिए ही सौभाग्य वर्धक होगा।"
धनंजय ने कहा--"तुम्हारे श्रेष्ठी सम्पदा में हम से न्यून हैं, किन्तु, जाति में समान हैं। सब तरह से समान मिलना तो कठिन है । जाओ, श्रेष्ठी को हमारी स्वीकृति की सूचना दे दो।"
मृगार श्रेष्ठी के अनुचर शीघ्रता से लौट आये । उन्होंने उल्लास-वर्धक वह संवाद श्रेष्ठी को सुनाते हुए कहा--- "साकेत में धनंजय श्रेष्ठी की कन्या विशाखा अपने कुमार के अनुरूप है।" मगार श्रेष्ठी को इस संवाद से अत्यन्त प्रसन्नता हुई। महाकुल की कन्या अपने कुमार के लिए है ; अतः उसने धनंजय को उसी समय शासन (पत्र) लिखा। उसमें उसने लिखा-.-"हम इसी समय कन्या को लेने आयेंगे. आप अपना प्रबन्ध करें।" प्रसन्नमना धनंजय ने प्रतिशासन भेजा---"हमारे लिए यह कोई कठिन नहीं है । आप अपनी व्यवस्था करें। . मृगार श्रेष्ठी कोशल-राज के पास आया। उसने निवेदन किया-"देव ! मेरे घर एक मंगल प्रसंग है । धनंजय श्रेष्ठी अपनी कन्या विशाखा पूर्णवर्द्धन को प्रदान करेगा ; अतः मुझे साकेत जाने की आज्ञा प्रदान करें।"
राजा ने आज्ञा प्रदान करते हुए पूछा----"क्या मुझे भी चलना है ?" मृगार श्रेष्ठी ने कहा "देव ! हमारा ऐसा सौभाग्य ?"
राजा ने कहा ...."महाकुल-पुत्र को सन्तुष्ट करने के अभिप्राय से मैं भी चलूंगा।' विशाखा का विवाह
कोशल-राज मृगार श्रेष्ठी के बृहत् परिवार के साथ साकेत आया। धनंजय ने दोनों का हार्दिक स्वागत किया। वास-स्थान, माला, गन्ध, वस्त्र आदि की प्रत्येक के लिए सुन्दर व्यवस्था की गई। सभी यह अनुभव करते थे, धनंजय श्रेष्ठी हमारा ही सत्कार कर रहा है।
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