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इतिहास और परम्परा ]
समसामयिक धर्म - नायक
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बालक की तरह बिना विचारे भी कोई काम नहीं करते। वे राज-भय से भी धर्मोपदेश नहीं करते ; फिर दूसरें भय की तो बात ही क्या ? वे प्रश्नों का उत्तर देते हैं और नहीं भी देते । वे अपनी सिद्धि के लिए तथा आर्य लोगों के उद्धार के लिये उपदेश करते हैं । वे सर्वज्ञ सुनने वालों के पास जाकर अथवा न जाकर धर्म का उपदेश करते हैं, किन्तु, अनार्य लोग दर्शन से भ्रष्ट होते हैं; इसलिए भगवान् उनके पास नहीं जाते ।
गोशालक—– जैसे लाभार्थी वणिक् क्रय-विक्रय की वस्तु को लेकर महाजनों से सम्पर्क करता है ; मेरी दृष्टि से तुम्हारा महावीर भी लाभार्थी वणिक् है ।
आर्द्रक मुनि - महावीर नवीन कर्म नहीं करते । पुराने कर्मों का नाश करते हैं । वे मोक्ष का उदय चाहते है, इस अर्थ में वे लाभार्थी हैं; यह मैं मानता हूँ । वणिक् तो हिंसा, असत्य, अब्रह्म आदि अनेक पाप कर्म करने वाले हैं और उनका लाभ भी चार गति में भ्रमण रूप है । भगवान् महावीर जो लाभ अर्जित कर रहे है, उसकी आदि हैं, पर, अन्त नहीं है । वे पूर्ण अहिंसक, परोपकारक और धर्म- स्थित हैं । उनकी तुलना तुम आत्म-अहित करने वाले वणिक् के साथ कर रहे हो, यह तुम्हारे अज्ञान के अनुरूप ही है ।
बौद्ध भिक्षु
बौद्ध भिक्षु — कोई पुरुष खली के पिण्ड को पुरुष मान कर पकाये अथवा तुम्बे को बालक मान कर पकाये, तो वह हमारे मत के अनुसार भी पुरुष और बालक के वध का ही पाप करता है । इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति पुरुष व बालक को खली व तुम्बा समझ कर भेदित करता है व पकाता है, तो वह पुरुष व बालक के वध करने का पाप उपार्जित नहीं करता। साथ-साथ इतना और कि हमारे मत में वह पक्व मांस पवित्र और बुद्धों के पारणे के योग्य है ।
अद्र कुमार ! हमारे मत में यह भी माना गया है कि जो व्यक्ति प्रतिदिन दो सहस्र स्नातक' (बोधिसत्त्व) भिक्षुओं को भोजन कराता है, वह देवगति में आरोप्य' नामक सर्वोत्तम देव होता है । 3
१. श्री शीलांकाचार्य, सूत्रकृतांगवृत्ति, श्रु० २, अ० ६, गा० २६, प्र० श्री गोडीजी पार्श्वनाथ जैन देरासरपेढ़ी, बम्बई, १६५०
२. दीघ निकाय, महानिदान सुत्त में काम भव, रूप भव, अरूप भव -- बुद्ध ने ये तीन प्रकार के भव बतलाये हैं । अरूप भव का अर्थ निराकार लोक बतलाया है ।
३. पिन्नागपिंड़ीमवि विद्ध सूले, केइ पएज्जा पुरिसे इमेत्ति । अलाउयं वावि कुमारएत्ति, स लिप्पती पाणिवण अम्हं || अहवावि विद्धूण मिलक्खु सूले, पिन्नागबुद्धीइ जरंपएज्जा । कुमारगं वादि अलाबुयंति, न लिप्पइ पाणिवेहेण अम्हं ॥ पुरिसं च विद्धूण कुमारगं वा, सूलंमि केई पए जायते । पिन्नाय पिंडं सतिमारुहेत्ता, बुद्धाण तं कप्पति पारणाए । सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए यिए भिक्खुयाणं । ते पुन्नखंधं सुमहं जीणित्ता, भवंति आरोप्प महंतसत्ता ॥
- श्री सूत्रकृतांग सूत्रम्, श्रु० २ अ० ६, प्र० महावीर जैन, ज्ञानोदय सोसायटी, राजकोट, १९३८ ।
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