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इतिहास और परम्परा साधना
१५७ सुजाता ने अपनी पूर्णा दासी को शीघ्र ही देव-स्थान की सफाई का निर्देश दिया। दासी तत्काल वहाँ से चली। वृक्ष के नीचे आई। बुद्ध ने उसी रात को पाँच महास्वप्न देखे और उनके आधार पर निश्चय किया- “निःसंशय आज मैं बुद्ध होऊँगा।" रात बीतने परशौच आदि से निवृत्त हो, भिक्षा-काल की प्रतीक्षा करते हुए उसी वृक्ष के नीचे बैठे। सारा वक्ष उनकी प्रभा से प्रकाशित हो उठा। पूर्णा ने वृक्ष के नीचे पूर्वाभिमुख बैठे बुद्ध को देखा। उसने सोचा, आज हमारे देवता वृक्ष से उतरकर, अपने हाथ से ही बलि ग्रहण के लिए बैठे हैं। उसने दौड़कर सुजाता को सूचित किया। सुजाता को उस संवाद से अत्यधिक प्रसन्नता हुई। उसने पूर्णा से कहा- "आज से तू मेरी ज्येष्ठा पुत्री होकर मेरे पास रह ।" सुजाता ने तत्काल उसे पुत्री के योग्य आमरण दिये। स्वर्ण के थाल में खीर को सझाया, दूसरे स्वर्ण थाल से उसे ढांका और स्वच्छ कपड़े से बांधा। स्वयं अलंकृत होकर, थाल को अपने सिर पर रख कर वृक्ष के नीचे आई। बुद्ध को वहाँ देखकर वह बहुत ही सन्तुष्ट हुई। उन्हें वृक्षदेवता समझकर सर्वप्रथम जहाँ से उसने बुद्ध को देखा था, उसी स्थान पर झुक कर, सिर से थाल को उतारा, खोला, सोने की झारी में से सुगन्धित पुष्पों से सुवासित जल को लिया और बुद्ध के पास जाकर खड़ी हो गई। घटिकार महाब्रह्मा द्वारा प्रदत्त मिट्टी का भिक्षा पात्र इतने समय तक बराबर बुद्ध के पास रहा, किन्तु, इस समय वह अदृश्य हो गया। पात्र को अपने पास न देखकर बुद्ध ने दाहिना हाथ फैलाकर जल को ग्रहण किया। सुजाता ने पात्र सहित खीर को महापुरुष के हाथ में अर्पित किया । बुद्ध ने सुजाता की ओर देखा। सुजाता उनके अभिप्राय को समझ गई। उसने निवेदन किया-"आर्य ! मैंने तुम्हें यह प्रदान किया है। इसे ग्रहण कर यथारुचि पधारें।" सुजाता ने वंदना की और कहा-"जैसे मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ है, वैसे तुम्हारा भी पूर्ण हो।" और एक लाख मुद्रा वाला वह स्वर्ण-थाल पुराने पत्तल की तरह उसने वहीं छोड़ दिया और वह वहाँ से चली गई।
बुद्ध वहाँ से उठे। वृक्ष की प्रदक्षिणा की और नेरञ्जरा नदी के तीर पर गये । थाल को एक ओर रखा, जल में उतरे, स्नान कर बाहर आये, पूर्वाभिमुख होकर बैठे और उनपच्चास ग्रास करके उस सारे निर्जल पायस का उन्होंने भोजन किया। यह भोजन ही उनके बुद्ध होने के बाद बोधिमण्ड में वास करते हुए सात सप्ताह के उनपच्चास दिनों के लिए आहार हुआ। इतने समय तक न उन्होंने आहार किया, न स्नान किया और न मुख ही धोया। ध्यान-सुख, मार्ग-सुख, फल-सुख से ही इन सात सप्ताहों को बिताया। बुद्ध ने खीर को खाकर सोने के थाल को नदी में फेंक दिया।'
स्वप्न
छद्मस्थ-अवस्था की अन्तिम रात्रि में महावीर दश स्वप्न देखते हैं, जिनका सम्बन्ध उनके भावी जीवन से है । बुद्ध अपने साधना-काल की अन्तिम रात्रि में पांच महास्वप्न देखते हैं । उनका सम्बन्ध भी उनके भावी जीवन से है। स्वप्नों की संघटना बहुत कुछ भिन्न है, पर, हार्द बहुत कुछ समान है।
१. जातकट्ठकथा, निदान ।
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