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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
इसी अध्ययन की उपसंहारात्मक गाथा में कहा गया है : "इस प्रकार नरपति सिंह (श्रेणिक) अनगार-सिंह अनाथी मुनि को प्रणाम कर सपरिजन, सबन्धु धर्म में अनुरक्त
हुआ।
उक्त दोनों घटना-प्रसंगों में यह समानता बहुत ही विस्मयोत्पादक है कि मगधराज तरण भिक्षुक के सौन्दर्य और सौम्यता पर मुग्ध होता है, सांसारिक भोगों के लिए आमन्त्रित करता है और अस्वीकृति मूलक उत्तर पाता है। दोनों प्रकरणों का रचना-ऋम सहसा यह सोचने को विवश करता है कि किसी एक परम्परा ने दूसरी परम्परा का अनुकरण तो नहीं किया है ? 'मंडिकुच्छि' उद्यान का उल्लेख बौद्ध-परम्परा में 'मद्दकुच्छि' नाम से मिलता है। अनाथी मुनि का इस अध्ययन के अतिरिक्त और कहीं वर्णन नहीं मिलता। वे महावीर के संघ में थे या पार्श्व-परम्परा में, इसका भी कोई विवरण नहीं मिलता। वे कभी महावीर से मिले थे, ऐसा भी उल्लेख नहीं है । सम्भवतः इन्हीं कारणों से इतिहासकार डॉ० राधाकुमुद मुकर्जी ने इस सारे प्रकरण को अनाथी के साथ न जोड़ कर 'अनगार-सिंह' शब्दप्रयोग के आधार से महावीर के साथ जोड़ा है। उनका कथन है, श्रेणिक की यह भेंट महावीर के साथ ही हुई थी। ऐसा होने में इस भेंट का ऐतिहासिक महत्त्व तो बढ़ता है, पर, यह मानने के लिए कोई पर्याप्त आधार नहीं है। कौशाम्बी नगरी, प्रभूतधनसंचय श्रेष्ठी, अक्षिवेदना आदि इस घटना-प्रसंग को सर्वाशतः पृथक् व्यक्त करते हैं।
दोनों प्रथम सम्पर्कों में उल्लेखनीय अन्तर तो यह है कि बुद्ध को तो श्रेणिक बोधिलाभ के पश्चात् राजगृह आने का आमन्त्रण मात्र ही करता है और अनाथी मुनि के सम्पर्क में श्रेणिक निर्ग्रन्थ-धर्म को सपरिवार स्वीकार करता है।
____ अनाथी निर्ग्रन्थ दूसरे प्रकार की अनाथता का वर्णन करते हुए द्रव्यलिगियों पर तीव्र प्रहार कर राजा के मन को उधर से हटाते हुए प्रतीत होते हैं। उस वर्णन से यह निकाल पाना तो कठिन है कि उनके वे संकेत अमुक पन्थ के लिए हुए हैं और इससे पूर्व श्रेणिक अमुक पन्थ को ही माना करता था। वहाँ मुख्य अभिव्यक्ति शिथिलाचारी निर्ग्रन्थों की प्रतीत होती है, पर, पता नहीं, उस समय कौन से निन्थ इतने शिथिलाचारी हो रहे थे। पार्श्व-परम्परा के शिथिल निर्ग्रन्थों की ओर यदि यह संकेत है, तो इससे इतना तो प्रतीत होता ही है कि यह घटना-प्रसंग महावीर के कैवल्य-लाभ और राजगृह-आगमन से पूर्व का है, जबकि समाज में पाश्वपत्यिक शिथिलाचारी भिक्षओं का बोलबाला था।
त्रिपिटक साहित्य में धर्म-चक्षु का लाभ
राजा बिम्बिसार के बौद्ध धर्म स्वीकार करने के भी कुछ एक स्पष्ट उल्लेख मिलते तं सि णाहो अणाहाणं, सव्वभूयाण संजया ! । खामेमि ते महाभाग ! इच्छामि अणुसासिउं ॥५६॥ पुच्छिऊण मए तुब्भं, झाणविग्घो उ जो कओ। निमंतिओ य भोगेहि, तं सव्वं मरिसेहि मे ॥५७॥ १. एवं थुणित्ताण स रायसीहो, अणगारसीहं परमाइ भत्तीए।
सओरोहो सपरियणो, सबंधवों, धम्माणुरत्तो विमलेण चेयसा ॥५॥ २. दीघ निकाय, महावग्गो, महापरिनिब्बानसुत्त, पृ० ६१ । ३. हिन्दू सभ्यता, पृ०१८५।
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