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इतिहास और परम्परा] अनुयायी राजा
२७३ प्रकार की अनाथता का भी परिचय दिया । वह अनाथता थी, प्रवजित होकर भी प्रव्रज्यानियमों के अनुकूल न चलना। शिथिलाचार की तीव्र भर्त्सना करते हुए मुनि कहते हैं
"हे राजन् ! अनाथता के अन्य स्वरूप को भी एकाग्र होकर सुन । ऐसे कातर पुरुष भी होते हैं, जो निर्ग्रन्थ धर्म को पाकर भी उसमें शिथिल हो जाते हैं।'
___जैसे पोली मुट्ठी असार होती है और खोटी मुद्रा में भी कोई सार नहीं होता; उसी प्रकार द्रव्य लिंगी मुनि भी असार होता है। जैसे काँच की मणि वैडूर्य मणि की तरह प्रकाश तो करती है, किन्तु विज्ञ पुरुषों के सम्मुख उसका कुछ भी मूल्य नहीं होता; उसी प्रकार बाह्य लिंग से मुनियों की तरह प्रतीत होने पर भी वह द्रव्य लिंगी मुनि विज्ञ पुरुषों के समक्ष अपना कुछ भी मूल्य नहीं रखता।'
"जो असाधु पुरुष लक्षण, स्वप्न आदि का प्रयोग करता है, निमित्त और कौतुक कर्म में आसक्त है, इसी प्रकार वह असत्य और आश्चर्य-उत्पादक विद्याओं से जीवन व्यतीत करने वाला है ; पापोदय के समय उसका कोई त्राण नहीं है।'
"जो असाधु पुरुष औद्देशिक, क्रीतकृत, नितयपिण्ड और अनैषणीय कुछ भी नहीं छोड़ता, अग्नि की तरह सर्वभक्षी होकर जीता है, वह नरकादि गतियों में जाता है ॥४
संयम-शून्य साधुओं का आचार बताते हुए अनाथी ने मगधराज श्रेणिक से स्पष्ट-स्पष्ट कहा--
सोच्चाण मेहावि सुभासियं इमं अणुसासणं नाणगुणोववेयं ।
भग्गं फुसीलाण जहाय सव्वं महानियण्ठाण वए पहेणं ॥५१॥ हे मेधाविन् । ज्ञानगुणोपपेत इस सुभाषित अनुशासन को सुनकर और कुशील जनों के मार्ग का सर्वथा परित्याग कर महानिर्ग्रन्थों (तीर्थङ्करों) के पथ पर चल ।
यह सब सुनकर मगधराज श्रेणिक बहुत तुष्ट हुआ । अंजलिबद्ध होकर कृतज्ञता के शब्दों में उसने कहा : "महामुने ! आपने अनाथता का मुझे सम्यग् दिग्दर्शन कराया। आपका जन्म सफल है । आप ही सनाथ और सबन्धु हैं; क्योंकि आप सर्वोत्तम जिन-मार्ग में अवस्थित हैं। मैंने आपको भोगार्थ आमंत्रित किया, आपके ध्यान में विघ्न किया, इसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। मैं आपका अनुशासन ग्रहण करता हूँ।"५ १. इमा हु अन्ना वि अणाहया निवा !, तमेगचित्तो निहुओ सुणेहि ।
नियण्ठधम्म लहियाण व जहा, सीयन्ति एगे बहुकायरा नरा ॥३८॥ २. पोल्ले व मुट्ठी जह से असारे, अयंतिए कूडकहावणे वा। . राढामणी वेरुलियप्पगासे, अमहग्घए होइ य जाणएसु ॥४२॥ कुसीललिंगं इह धारइत्ता, इसिज्झयं जीविय बहइत्ता।
असंजए संजयलप्पमाणे, विणिघायमागच्छइ से चिरं पि ॥४३॥ ३. जो लक्खणं सुविण पउंजमाणे, निमित्त कोऊहलसंपगा।
कुहेडविज्जासवदारजीवी, न गच्छई सरणं तम्मि काले ॥४५॥ ४. उद्देसि कीयगडं नियागं, न मुंचई किंचि अणेसणिज्ज ।
अग्गी मिवा सव्वभक्खी भवित्ता, इओ चुइ गच्छ इकट्ठ पावं ॥४७॥ ५. तुट्ठो य सेणिओ राया, इणमुदाहु कयंजली ।
अणाहत्तं जहाभूयं, सुठ्ठ मे उवदंसियं ॥५४॥ तुझं सुलद्धं खु मणुस्सजम्म, लाभा सुलद्धा य तुमे महेसी । तुब्भे सणाहा य सबंधवा य, जंभे ठिआ मग्गे जिणुत्तमाणं ॥५५॥
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