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२७२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड :१ कहा-"मैं राज्य पाने के लिए नहीं, बुद्धत्व पाने के लिए प्रवजित हुआ हूँ।" बिम्बिसार ने कहा--"आपकी कामना सफल हो। बुद्धत्व प्राप्त कर आप मेरे नगर राजगृह में अवश्य आना।
जैन परम्परा में श्रेणिक राजा का प्रथम समागम अनाथी मुनि के साथ हुआ, ऐसा प्रतीत होता है । वह समागम भी बहुत कुछ पूर्वोक्त समागम से समानता रखने वाला है। राजगृह के निकट मण्डी कुक्षी उद्यान था। वह नाना कुसुमों से आच्छादित व बहुत ही रमणीय था। एक दिन मगधराज श्रेणिक वन-क्रीड़ा के लिए उस उद्यान में आया। वहाँ उसने एक महानिर्ग्रन्थ को देखा। वह एक घने वृक्ष की छाया में बैठा था। उसकी आकृति सुकोमल और भव्य थी। वय से वह तरुण था । मुख पर असीम शान्ति विराजमान थी । मगधराज श्रेणिक ने ज्यों ही उसे देखा, उसके मुख से निकल पड़ा--"कैसा वर्ण! कैसा रूप! इस आर्य की कैसी सौम्यता! कैसी इसकी क्षमा ! कैसा इसका त्याग ! कैसी इसकी भोग-निस्पृहता !"२
__ मगधराज श्रेणिक उस महानिर्ग्रन्थ के निकट गया और पूछने लगा-'भिक्षुक ! तुम तहण हो, इस भोग-काल में ही कैसे दीक्षित हो गये ?"
मुनि-"महाराज ! मैं अनाथ था।"
राजा-"भिक्षुक ! तुम्हारे जैसा ऋद्धिमान् अनाथ ? मैं तुम्हारा नाथ होता हूँ। पुनः संसार में प्रवेश करो और मनुष्य-जीवन का आनन्द लूटो।"
मुनि-“मगधराज ! तुम तो स्वयं अनाथ हो, मेरे नाथ कैसे हो जाओगे ?" राजा-"मैं अनाथ कैसे ! तुम अनाथ किसे कहते हो भिक्षुक ?"
मुनि -"कौशाम्बी नगरी थी । यथानाम तथागुण 'प्रभूत धन संचय' नामक मेरा पिता था। माता, पत्नी, बन्धु, सबका सुखद संयोग था। एक बार मेरी आँखों में भयंकर वेदना उत्पन्न हुई। शरीर में भी दाह-ज्वर उत्पन्न हुआ। वह वेदना निरुपम थी, असह्य थी। कुशल चिकित्सक, अभ्यस्त मंत्रविद् सभी हताश रहे । वेदना शान्त नहीं हुई । राजन् ! मेरा पिता मेरे लिए सब कुछ न्योछावर करने को प्रस्तुत था; फिर भी वह मुझे वेदना-मुक्त नहीं कर सका; यह मेरी अनाथता थी। मेरी माता भीगी आँखों से मुझे निहारती रही, पर, मुझे वेदना-मुक्त नहीं कर सकीं; यह मेरी अनाथता थी। सगे भाई और सगी बहिनें भी मुझे वेदनामुक्त नहीं कर सकीं; यह मेरी अनाथता थी। मेरी पत्नी अनवरत मेरे पास खड़ी ही रहती थी
और अपने अश्रुओं से मेरे वक्ष का परिसिंचन करती थी। वह मुझे वेदना-मुक्त नहीं कर सकी; यह मेरी अनाथता थी।"
उस महानिर्ग्रन्थ ने मगधराज श्रेणिक को बताया-"राजन् ! मैंने स्वयं को सब तरह से अनाथ पाकर धर्म की शरण ग्रहण की। मैंने संकल्प किया-'मेरी वेदना शान्त हो, तो मैं अनगार धर्म को अंगीकार करूँ।' अगले ही दिन वेदना शान्त हो गई और मैं अनगार बन गया।"
___ अनाथी मुनि और श्रेणिक राजा के इस संलाप का पूरा विवरण उत्तरज्झयणाणि के बीस महानिर्ग्रन्थीय अध्ययन में दिया गया है। अनाथी मुनि ने इसी प्रसंग पर एक दूसरे
१. सुत्तनिपात, महावग्ग, पव्वज्जा सुत्त; बुद्ध चरित, सर्ग ११, श्लोक ७२ । २. अहो वण्णो अहो रूवं, अहो अज्जस्स सोमया। अहो खन्ती अहो मुत्ती, अहो भोगे असंगया ।
उत्तरज्झयणाणि, अ० २०, गा० ६
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