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________________ १४ अनुयायी राजा श्रेणिक-बिम्बिसार महावीर और बुद्ध के अनुयायिओं में अनेक राजा लोग भी थे। विस्मय की बात तो यह है कि कुछ एक राजाओं व राजकुमारों को जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराएं अपने-अपने उपासक मानती हैं । ऐसे लोगों में श्रेणिक-बिम्बिसार, कूणिक (अजातशत्रु) और अभयकुमार के नाम प्रमुखता से आते हैं। दोनों ही परम्पराएं इन सबको अपने अनुयायी ही नहीं, दढ़ उपासक भी मानती हैं । आगमों, त्रिपिटकों और दोनों ही परम्पराओं के पुराण-साहित्य में उक्त सभी पात्रों की भरपूर चर्चाएं हैं। गवेषक विद्वानों का ध्यान भी उन चर्चाओं की ओर गया है । नाना निष्कर्ष निकले हैं । कुछ लोग मानते हैं, ये सब महावीर के उपासक थे, तो कुछ मानते हैं, ये सब बुद्ध के उपासक थे । एक विचारधारा है, श्रेणिक पहले बौद्ध था, फिर जैन बना, तो दूसरी विचारधारा है, पहले वह जैन था, फिर बौद्ध बना। वस्तुस्थिति की स्पष्टता के लिए अपेक्षा है, सम्बन्धित पुरावों को बटोर कर किसी एक निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयत्न किया जाये। प्रथम सम्पर्क बौद्ध परम्परा के अनुसार बुद्ध और बिम्बिसार का प्रथम सम्पर्क बोधिलाभ से बहुत पूर्व और प्रव्रज्या-ग्रहण के अनन्तर ही हो जाता है । तरुण भिक्षु बुद्ध भिक्षार्थ राजगृह में प्रवेश करते हैं । बुद्ध के आकर्षक व्यक्तित्व पर सहस्रों नर-नारियों का ध्यान खिंच जाता है। महाकवि अश्वघोष के शब्दों में-"बुद्ध को देखते ही जिनकी आँखें जहाँ लगी, भू पर, ललाट पर, मुख पर, आँखों पर, शरीर पर, हाथों पर, चरणों पर, गति पर, उसकी आँखें वहीं बन्ध गई।" राजगृह में भिक्षाचार करते बुद्ध की आँखें स्थिर थीं। वे जुए की दूरी तक देखकर चलते थे । वे मूक थे। उनकी गति मन्द व नियंत्रित थी। उनका मन संयत था।२ बिम्बिसार ने भी इस दिव्य प्रभाव वाले भिक्षुक को अपने राजमहलों से देखा । वह अत्यन्त आकृष्ट हुआ। भिक्षुक से बात करने को उत्सुक हुआ । राजगृह के पाण्डु (रत्नगिरि) पर्वत पर आकर उसने बुद्ध से साक्षात्कार किया। बिम्बिसार ने बुद्ध से राज्य और भोग-सामग्री के ग्रहण और उपभोग के लिए प्रार्थना की । बुद्ध ने यह सब अस्वीकार करते हुए राजा को काम-विकारों का कुफल बताया और १. 5वी ललाट मुखमीक्षणे वा, वपुः करौ वा चरणौ गति वा। यदेव यस्तस्य ददर्श तत्र, तदेव तस्याथ बबन्ध चक्षु : ॥ -बुद्ध चरित, सर्ग १०, श्लोक ८, २. अलोलचक्षुर्युगत्रमादर्शी, निवृत्तवाग् यंत्रितमन्दयामी । चचार भिक्षां स तु भिक्षुवर्यो निधाय गात्राणि चलं च चेतः॥ -बुद्ध चरित, सर्ग १०, श्लोक १३ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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