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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
के समवसरण में दीक्षित हुई थी। जमालि के विरोधी होने का इतिहास भगवती' में मिलता। वहीं बताया गया है: "जमालि अनगार एक दिन भगवान महावीर के पास आये। निवेदन किया-"भन्ते ! यदि आपकी अनुज्ञा हो, तो मैं पाँच सौ साधुओं के साथ अन्य प्रदेश में विचरना चाहता हूँ। महावीर ने जमालि का निवेदन सुना, पर, उत्तर नहीं दिया। मौन
ल ने अपने कथन को तीन बार दुहराया, फिर भी महावीर ने उत्तर नहीं दिया। जमालि ने पांच सौ साधओं के साथ अन्य प्रदेश में विचरने के लिए प्रस्थान कर दिया।
__ "एक बार जमालि अनगार श्रावस्ती के कोष्ठक चैत्य में ठहरे हुए थे । प्रति दिन तुक्ष, नीरस, ठण्डा और अल्प भोजन करने से उनके शरीर में पित्तज्वर हो गया। सारा शरीर दाह व वेदना से पीड़ित रहने लगा। एक दिन उन्होंने अपने सहवर्ती साधुओं से शय्या-संस्तारक लगाने के लिए कहा । साधु तत्काल कार्य में जुट गये । जमालि पीड़ा से अत्यन्त व्याकुल हो रहे थे । एक क्षण का विलम्ब भी उन्हें सह्य नहीं हो रहा था। उन्होंने पुनः पूछा- क्या मेरे लिए शय्या-संस्तारक कर दिया गया है ?' साधुओं ने विनम्र उत्तर दिया- 'अभी तक किया नहीं है, कर रहे हैं। उत्तर सुनते ही जमालि सोचने लगे-भगवान् महावीर को कृतमान को कृत, चलमान को चलित कहा करते हैं ; यह तो गलत है। जब तक शय्या-संस्तारक बिछ नहीं जाता, तब तक उसे बिछा हुआ कैसे माना जा सकता है ? उन्होंने श्रमण-निर्ग्रन्थों को बुलाया और उनके समक्ष अपना मन्तव्य प्रकट किया। कुछ श्रमणों ने उनके सिद्धान्त को स्वीकार किया और कुछ ने स्वीकार नहीं किया। जिन्होंने स्वीकार किया, वे उनके साथ रहे और जिन्होंने स्वीकार नहीं किया, वे भगवान महावीर के पास लौट आये।
"कुछ समय पश्चात् अनगार जमालि स्वस्थ हुए। वे श्रावस्ती से विहार कर चम्पा आये। महावीर भी उस समय वहीं पधारे हुएथे। जमालि महावीर के पास आये और बोले'आपके अनेक शिष्य छद्मस्थ हैं, केवलज्ञानी नहीं हैं । परन्तु, मैं तो सम्पूर्ण ज्ञान-दर्शन से युक्त, अर्हत्, जिन और केवली के रूप में विचर रहा हूँ।' गणधर गौतम ने जमालि के कथन का प्रतिवाद करते हुए कहा-"केवल ज्ञानी का दर्शन पर्वत आदि से कभी आच्छन्न नहीं होता। यदि तू केवलज्ञानी है, तो मेरे प्रश्नों का उत्तर दे-'लोक शाश्वत है या अशाश्वत ?, जीव शाश्वत है या अशाश्वत ? ___"जमालि कोई भी प्रत्युत्तर न दे सके। वे मौन रहे। भगवान् महावीर ने कहा-जमालि ! मेरे अनेक शिष्य इन प्रश्नों के उत्तर दे सकते हैं। फिर भी वे अपने को जिन या केवली घोषित नहीं करते हैं।' जमालि को महावीर का कथन अच्छा न लगा । वे वहाँ से उठे और चल दिये । अलग ही रहने लगे और वर्षों तक असत्य प्ररूपणाओं द्वारा मिथ्यात्व का पोषण करते रहे। अन्त में अनशन कर, अपने पाप-स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमणा किये बिना ही काल-धर्म को प्राप्त हुए और लान्तक देवलोक में किल्विषिक रूप में उत्पन्न हुए"
जमालि की वर्तमानता में ही प्रियदर्शना एक बार अपने साध्वी-परिवार सहित श्रावस्ती गई। वहाँ वह ढंक कुंभकार की शाला में ठहरी । ढंक महावीर का परम अनुयायी था। प्रियदर्शना को प्रतिबोध देने के लिए उसने उसकी संघाटी में आग लगा दी। संघाटी जलने
हठात बोल पड़ी-"संघाटी जल गई," "संघाटी जल गई ।" ढंक ने कहा- “आप मिथ्या संभाषण क्यों करती हैं ? संघाटी जली कहाँ, वह तो जल रही है।'' प्रियदर्शना प्रतिबुद्ध हुई । पुनः अपने साध्वी-समूह के साथ महावीर के शासन में प्रविष्ट
१. शतक ६, उ० ३३ । २. विशेषावश्यक भाष्य, गा. २३२४-२३३२ ।
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