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इतिहास और परम्परा]
अनुयायी राजा
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कोई नहीं आया। दूसरी भेरी बजी-"आओ चलें, नगर में न घुसने दें। द्वार बन्द करके रहें। कोई नहीं आया। भेरी सुनकर सब यही बोलते-"हम तो गरीब हैं, हम क्या लड़ेंगे?" "हम तो कायर हैं, हम क्या लड़ेंगे?" "जो श्रीमन्त हैं और शौर्यवन्त हैं, वे लड़ेंगे।" खुले ही द्वार अजातशत्रु नगरी में प्रविष्ट हुआ और वैशाली का सर्वनाश कर चला गया।
महापरिनिव्वाण सुत्त के अनुसार अजातशत्रु के दो महामात्य सुनीध और वस्सकार ने वज्जियों से सुरक्षित रहने के लिए गंगा के तट पर ही पाटलिपुत्र नगर बसाया । जब वह बसाया जा रहा था, संयोगवश बुद्ध भी वहां आये। सुनीध और वास्सकार के आमन्त्रण पर उनके यहां भोजन किया। चर्चा चलने पर पाटलिपुत्र की प्रशंसा की और उसके तीन अन्तराय बताये-आग, पानी और पारस्परिक भेद । बुद्ध के कथानानुसार त्रयस्त्रिश देवों के साथ मंत्रणा करके सुनील और वस्सकार ने यह नगर बसाया था।
समीक्षा
दोनों ही परम्पराएं अपने-अपने ढंग से इस मगध-विजय और वैशाली-मंग का पूरापूरा ब्यौरा देती है । युद्ध का निमित्त, युद्ध का प्रकार आदि दोनों परम्पराओं के सर्वथा भिन्न हैं। जैन परम्परा चेटक को लिच्छवी-नायक के रूप में व्यक्त करती है। बौद्ध- परम्परा प्रतिपक्ष के रूप में केवल वज्जी-संघ (लिच्छवी-संघ) को ही प्रस्तुत करती है। जैन परम्परा के कुछ उल्लेख जैसे-कूणिक व चेटक की क्रमशः ३३ करोड़ व ५७ करोड़ सेना, शक्र और असुरेन्द्र का सहयोग, दो ही दिनों में १ करोड ८० लाख मनुष्यों का बध होना, कूलवालक के सम्बन्ध से आकाशवाणी का होना, स्तूप मात्र के टूटने से लिच्छवियों की पराजय हो जाना आदि बातें आलंकारिक जैसे लगती हैं। बौद्ध परम्परा का वर्णन अधिक सहज और स्वभाविक लगता है। युद्ध के निमित्त में एक ओर रत्न-राशि का उल्लेख हैं तो एक ओर महार्य देव प्रदत्तहार का । भावनात्मक समानता अवश्य है। चेटक बाण को जैन परम्परा में अमोघ बताया गया है । बौद्ध-परम्परा का यह उल्लेख कि उन (वज्जिगण) का एक भी प्रहार निष्फल नहीं जाता, उसी प्रकार का संकेत देता है।
जैन परम्परा स्तुप के प्रभाव से नगरी की सुरक्षा बताती है । बुद्ध कहते हैं-'जब तक वज्जी नगर के बाहर व भीतर के चैत्यों (स्तूपों) का आदर करेंगे, तब तक उनकी वृद्धि ही है, हानि नहीं।"
युद्ध के पात्रों का व्यवस्थित ब्यौरा जितना जैन परम्परा देती है, उतना बौद्ध परम्परा नहीं। चेटक तथा ६ मल्लकी, ६ लिच्छवी, अट्ठारह गणराजाओं का यत्किचित् विवरण भी बौद्ध परम्परा नहीं देती।
वैशाली-विजय में छम-भाव का प्रयोग दोनों ही परम्पराओं ने माना है। जैन परम्परा के अनुसार युद्ध के दो भाग हो जाते हैं१. पखवाड़े का प्रत्यक्ष युद्ध और २. प्राकार-भंग दोनों के बीच बहुत समय बीत जाता है। डॉ० राधाकुमुद मुखर्जी की धारणा के
१. दीघ निकाय-अट्ठकथा, खण्ड २, पृ० ५२३ ।
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