SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ सात अपरिहानीय नियम जब तक उनके चलते रहेंगे, तब तक उनकी अभिवृद्वि ही है; अभिहानि नहीं ।" ३०४ वज्जियों में भेद वस्सकार पुनः अजातशत्रु के पास आया और बोला- “बुद्ध के कथनानुसार तो वज्जी अजेय हैं, पर, उपलापन ( रिश्वत ) और भेद से उन्हें जीता जा सकता है ।" राजा ने पूछा- - "भेद कैसे डालें ?” वस्सकार ने कहा - "कल ही राजसभा में आप वज्जियों की चर्चा करें। मैं उनके पक्ष में कुछ बोलूँगा । उस दोषारोपण में मेरा शिर मुंडवा कर मुझे नगर से निकाल देना । मैं कहता जाऊँगा'मैंने तेरे प्राकार, परिखा आदि बनवाये हैं । मैं दुर्बल स्थानों को जानता हूँ। शीघ्र ही मैं तुम्हें सीधा न कर दूँ तो मेरा नाम वस्सकार नहीं है ।' अगले दिन वही सब घटित हुआ । बात वज्जियों तक भी पहुँच गई । कुछ लोगों ने कहा - "यह ठगी है। इसे गंगा-पार मत आने दो ।" पर, अधिक लोगों ने कहा--"यह घटना बहुत ही अपने पक्ष में घटित हुई है। वस्सकार का उपयोग अजातशत्रु करता था । यह बुद्विमान् है, इसका उपयोग हम ही क्यों न करें ? यह शत्रु का शत्रु है; अतः आदरणीय है ।" इस धारणा पर उन्होंने वस्सकार को अपने यहाँ अमात्य बना दिया । थोड़े ही दिनों में उसने वहाँ अपना प्रभाव जमा लिया। उसने वज्जियों में भेद डालने की बात शुरू की। सारे लिच्छवी एकत्रित होते, वह किसी एक से एकान्त में होकर पूछता "खेत जोतते हो ?” "हाँ, जोतते हैं ।" "दो बैल जोत कर ?" "हाँ, दो बैल जोत कर ।" दूसरा लिच्छवी उस लिच्छवी को एकान्त में ले जाकर पूछता - "महामात्य ने क्या कहा ?" वह सारी बात उसे कह देता; पर, उसे विश्वास नहीं होता कि महामात्य ने ऐसी साधारण बात की होगी । “मेरे पर तुम्हें विश्वास नहीं है, सही नहीं बतला रहे हो ।" यह कह कर सदा के लिये वह उससे टूट जाता । कभी किसी लिच्छवी को वस्सकार कहता –“आज तुम्हारे घर में क्या शाक बनाया था ?" वही बात फिर घटित होती । किसी एक लिच्छवी को एकान्त में ले जाकर कहता- "तुम बड़े गरीब हो।" किसी को कहता- "तुम बड़े कायर हो ।” “किसने कहा ?" पूछे जाने पर उत्तर देता- "अमुक लिच्छवीने, अमुक लिच्छवी ने । " कुछ ही दिनों में लिच्छवियों में परस्पर इतना अविश्वास और मनोमालिन्य हो गया कि एक रास्ते से भी दो लिच्छवी नहीं निकलते। एक दिन वास्सकर ने सन्निपात भेरी बजवाई । एक भी लिच्छवी नहीं आया । तब उसे निश्चय हो गया कि अब वज्जियों को जीतना बहुत आसान है । अजातशत्रु को आक्रमण के लिए उसने प्रच्छन्न रूप से कहला दिया । अजातशत्रु ससैन्य चल पड़ा । वैशाली में भेरी बजी - "आओ चलें, शत्रु को गंगा पार न होने दें । " १. दीघ निकाय, महापरिनिव्वाण सुत्त, २१३ (१६) । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy