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________________ इतिहास और परम्परा ] अनुयायी राजा ३०३ हुआ । देव- प्रदत्त हार देवताओं ने उठा लिया । हल्ल और विहल्ल को शासन देवी ने भगवान् महावीर के पास पहुँचा दिया । वहाँ वे निग्गंठ-पर्याय में दीक्षित हो गये । राजा चेटक ने आमरण अनशन व अपने शुभ अध्यवसायों से सद्गति प्राप्त की । " बौद्ध परम्परा - वाज्जियों से शत्रुता गंगा के एक पन के पास पर्वत में रत्नों की एक खान थी। अजातशत्रु और लिच्छ वियों में आधे-आधे रत्न बाँट लेने का समझौता था । अजातशत्रु " आज जाऊँ, कल जाऊँ" करते ही रह जाता । लिच्छवी एकमत हो सब रत्न ले जाते । अजातशत्रु को खाली हाथों वापस लौटना पड़ता । अनेक बार ऐसा हुआ । अजातशत्रु क्रुद्ध हो सोचने लगा- "गण के साथ युद्ध कठिन है, उनका एक भी प्रहार निष्फल नहीं जाता, पर कुछ भी हो, मैं महद्धिक वज्जियों को उच्छिन्न करूँगा, उनका विनाश करूँगा ।" अपने महामंत्री वस्सकार ब्राह्मण को बुलाया और कहा – “जहाँ भगवान् बुद्ध हैं, वहाँ जाओ । मेरी यह भावना उनसे कहो । जो उनका प्रत्युत्तर हो, मुझे बताओ। ५ I उस समय भगवान् बुद्ध राजगृह में गृधकूट पर्वत पर विहार करते थे । वस्सकार वहाँ आया । उस समय अजातशत्रु की ओर से सुख- प्रश्न पूछा और उसके मन की बात कही । भगवान् ने उस समय वज्जियों के सात अपरिहानीय नियम बतलाये : १. वज्जी सन्निपात- बहुल हैं अर्थात् उनके अधिवेशन में पूर्णा उस्थिति रहती हैं । २. वज्जी एकमत से परिषद् में बैठते हैं, एकमत से उत्थान करते हैं, एक हो करणीय कर्म करते हैं । वे सन्निपात भेरी के बजते ही खाते हुए, आभूषण पहनते हुए या वस्त्र पहनते हुए भी ज्यों-के-त्यों एकत्रित हो जाते हैं । ३. वज्जी अप्रज्ञप्त ( अवैधानिक) को प्रज्ञप्त नहीं करते, प्रज्ञप्त का उच्छेद नहीं करते । ४. वज्जी महल्लकों (वृद्धों ) का सत्कार करते हैं, गुरुकार करते हैं, उन्हे मानते हैं, पूजते हैं । ५. वज्जी कुल स्त्रियों और कुल-कुमारियों के साथ बलात् विवाह नहीं करते । ६. वज्जी अपने नगर के बाहर और भीतर के चैत्यों का आदर करते हैं। उनकी मर्यादाओं का लंघन नहीं करते । ७. वज्जी अर्हतों की धार्मिक सुरक्षा रखते हैं, इसलिए कि भविष्य में उनके यहाँ मर्हत् आते रहें और जो हैं, वे सुख से विहार करते रहें । १. भरतेश्वर बाहुबली वृत्ति, पत्र १००-१०१ । २. आचार्य भिक्षु, भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर, खण्ड २, पृ० ८८ । ३. बुद्धचर्या ( पृ० ४८४ ) के अनुसार " पर्वत के पास बहुमूल्य सुगन्ध वाला माल उतरता था।" ४. दीघनिकाय - अट्ठकथा ( सुमंगलविलासिनी), खण्ड २, पृ० ५२६ ; Dr. B. C. Law : Buddha Ghosa p. 111; हिन्दू सभ्यता, पृ० १८७ ॥ ५. दीघनिकाय, महापरिनिव्वाण सुत्त, २३ (१६) । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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