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इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त
३७३ "पांच उपक्रम, दृढ़ उद्योग सफल हैं : १. दुःख से अनभिभूत भिक्षु शरीर को दुःख से अभिभूत नहीं करता। २. भिक्षु धार्मिक सुख का परित्याग नहीं करता। ३. भिक्षु उस सुख में अधिक मूच्छित नहीं होता। ४. भिक्षु ऐसा जानता है, इस दुःख कारण के संस्कार के अभ्यास-कर्ता को, उस
संस्काराभ्यास से विराग होता है। ५. भिक्षु ऐसा जानता है, इस दुःख-निदान की उपेक्षा करने वाले को उस भावना
से विराग होता है । .......
"कोई पुरुष किसी स्त्री में अनुरुक्त, प्रतिबद्ध-चित्त व तीव्र रागी है। यदि वह पुरुष उस स्त्री को किसी अन्य पुरुष के पास खड़े, बातें करते व हास्य-विनोद करते हुए देखता है, तो उसे बहुत शोक व दुःख होता है । वह पुरुष उस प्रसंग से शिक्षा ग्रहण कर अपने मन को वश में कर लेता है तथा उस स्त्री से अपना अनुराग-भाव हटा लेता है। उसके बाद वही पुरुष उस स्त्री को यदि अन्य पुरुष के साथ खड़े, बातें करते हुए व हास्य-विनोद करते हुए देखता है तो उसे शोक व दुःख नहीं होता; क्योंकि वह पुरुष उस स्त्री से वीतराग हो चुका है। इसी प्रकार जो भिक्षु दुःख से अनभिभूत शरीर को दुःख से अभिभूत नहीं करता, धार्मिक सुख का परित्याग नहीं करता, उस सुख में मूच्छित नहीं होता, इत्यादि प्रकारों से उसका दःख जीर्ण होता है और उसका उपक्रम व दृढ़ उद्योग सफल होता है।
"सुख-विहार करते हुए किसी भिक्षु को ऐसा अनुभव होता है कि मेरे अकुशल धर्म बढ़ रहे हैं और कुशल धर्म क्षीण हो रहे हैं; अतः क्यों न मैं अपने को दःख में नियोजित कलं? वह अपने को कष्ट-कारक क्रियाओं में लगा देता है। उसके परिणाम-स्वरूप उसके अकुशल धर्म क्षीण होने लगते हैं और कुशल धर्म बढ़ने लगते हैं। जब सब तरह से वह अपने को कुशल धर्मों में प्रतिष्ठित पाता है, तो उन कष्ट-कारक क्रियाओं को छोड़ देता है; क्योंकि उसका प्रयोजन फलित हो गया । एक इषुकार अंगारों पर बाण-फल को तपाता है, उसे सीधा करता है; किन्तु जब वह पूर्णतः तप जाता है, सीधा हो जाता है, तो वह उसे पुनः अंगारे पर नहीं रखता; क्योंकि उसका प्रयोजन फलित हो गया। इसी प्रकार अकुशल धर्म की क्षीणता और कुशल धर्मों की वृद्धि हो जाने पर भिक्षु कायिक कष्ट से उपराम ले लेता है। उसका उपक्रम फलित होता है।
है ....भिक्षुओ ! तथागत का यह वाद है । इस वाद के उद्गाता तथागत की प्रशंसा के दस स्थान होते हैं :
१. यदि प्राणी पूर्व-विहित कर्मों के अनुसार ही सुख-दुख भोगते हैं, तो तथागत विगत में अवश्य ही पुण्य-कर्म करने वाले हैं, जो वर्तमान में आस्रव-विहीन सुख-वेदना का अनुभव करते हैं।
२. यदि प्राणी ईश्वराधीन हो सुख-दुख भोगते हैं, तो तथागत अवश्य ही अच्छे ईश्वर द्वारा निर्मित हैं, जो वर्तमान में आस्रव-विहीन सुख-वेदना का अनुभव करते हैं ।
३. यदि प्राणी संगति के अनुसार सुख-दुख भोगता है, तो तथागत अवश्य ही उत्तम संगति वाले हैं, जो वर्तमान में आस्रव-विहीन सुख-वेदना का अनुभव करते हैं।
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