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________________ ३७२ आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन 'नहीं, आवुस ! ' 'बहु- वेदनीय कर्म को उपक्रम विशेष से क्या अल्प- वेदनीय कर्म किया जा सकता है ? ' 'नहीं, आवुस !' 'अल्प- वेदनीय कर्म को उपक्रम- विशेष से क्या बहु- वेदनीय कर्म किया जा सकता है ?" 'नहीं, आबुस !" [ खण्ड : १ 'वेदनीय कर्म को उपक्रम - विशेष से क्या अवेदनीय कर्म किया जा सकता है ? ' 'नहीं, आवुस!' 'अवेदनीय कर्म को उपक्रम - विशेष से क्या वेदनीय कर्म किया जा सकता है ? ' 'नहीं, आवुस ! ' "अपने प्रश्नों का उपसंहरण करते हुए मैंने उनसे कहा - " उपक्रम - विशेष से उपरोक्त कार्यों में से जब कुछ भी नहीं किया जा सकता, तो आयुष्मान् निगंठों का उपक्रम और दृढ़ उद्योग निष्फल हो जाता है ।" “भिक्षुओ ! निगंठ ऐसे सिद्धान्त को मानते हैं । ऐसे सिद्धान्तवादी धर्मानुसार दस स्थानों में निन्दनीय होते है : १. यदि प्राणी पूर्व विहित कर्मों के अनुसार ही सुख-दुख भोगते हैं, तो निगंठों ने विगत में अवश्य ही बुरे कर्म किये थे, जिनसे वे वर्तमान में इस प्रकार दुःखद, तीव्र व कटु वेदनाएं भोग रहे हैं । २. यदि प्राणी ईश्वराधीन ही सुख-दुःख भोगते हैं, तो निगंठ अवश्य ही पापी ईश्वर द्वारा बनाए गए हैं, जो वर्तमान में इस प्रकार दुःखद, तीव्र व कटु वेदनाएँ भोग रहे हैं । णीय हैं । ३. यदि प्राणी संगति ( भवितव्यता ) के अनुसार सुख-दुःख भोगते हैं, तो निगठ अवश्य ही बुरी संगति वाले हैं, जो वर्तमान में इस प्रकार दुःखद, तीव्र व कटु वेदनाएँ भोग रहे हैं । ४. यदि प्राणी अभिजाति (जन्म) के कारण सुख-दुःख अभिजात अवश्य ही बुरी है, जो वर्तमान में इस प्रकार दुःखद, रहे हैं । ५. यदि प्राणी इसी जन्म के उपक्रम विशेष से सुख-दु:ख भोगते हैं, तो निगंठों का इस जन्म का उपक्रम भी बुरा है, जो वर्तमान में इस प्रकार दुःखद, तीव्र व कटु वेदनाएँ भोग रहे हैं। ६. यदि प्राणी पूर्व विहित कर्मों के कारण सुख-दुःख भोगते हैं, तो निगंठ गर्ह भोगते हैं, तो निगंठों की तीव्र व कटु वेदनाएँ भोग Jain Education International 2010_05 ७. यदि प्राणी ईश्वर - निर्मिति से सुख - दुःख भोगते हैं, तो निगंठ गर्हणीय हैं । 5, यदि प्राणी भवितव्यता के अनुसार सुख-दुःख भोगते हैं, तो निगंठ गर्हणीय हैं । & यदि प्राणी अभिजाति के कारण सुख-दुःख भोगते हैं, तो निगंठ गर्हणीय हैं । १०. यदि प्राणी इसी जन्म के उपक्रम के कारण सुख-दुःख भोगते हैं, तो निगंठ गर्ह णीय हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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