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________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ३७१ दुष्कर तपस्या से नष्ट करो। इस समय काय, वचन व मन से तुम संवृत्त हो, यह तुम्हारे भविष्य के पाप का अकारण है। इस प्रकार प्राचीन कर्मों की तपस्या से समाप्ति होने पर व नये कर्मों के अनागमन से भविष्य में तुम अनास्रव हो जाओगे। भविष्य में अनास्रव होने से क्रमश: कर्म-क्षय, दुःख-क्षय, वेदना-क्षय और सभी दुःख निर्जीर्ण हो जायेंगे।' यह सिद्धान्त हमें रुचिकर लगता है। इससे हम सन्तुष्ट हैं।" ____ "निगंठों से मैंने कहा--'आवुसो! १. श्रद्धा, २. रुचि, ३. अनुश्रव, ४. आकारपरिवितर्क, ५. दृष्टि-निध्यान-क्षान्ति; ये पाँच धर्म इसी जन्म में दो विपाक वाले हैं। अतीत अंशवादी शास्ता (निगंठ नातपुत्त ) में क्या आपकी श्रद्धा, रुचि, अनुश्रव, आकार परिवितर्क और दष्टि-निध्यान-शान्ति है ?' भिक्षुओ ! निगंठों के पास मैं इसका भी कोई वाद-परिहार नहीं देखता। "भिक्षुओ ! उन निगंठों से मैं फिर पूछता हूँ-'जिस समय तुम्हारा उपक्रम तीव्र होता है, उस समय उस उपक्रम-सम्बन्धी दुःखद, तीन व कटुक वेदना का अनुभव करते हो ? जिस समय तुम्हारा उपक्रम तीव्र नहीं होता, उस समय उस उपक्रम-सम्बन्धी दु:खद, तीव्र व कटुक वेदना का अनुभव करते हो ?' निगंठ मुझे उत्तर देते हैं-'जिस समय हमारा उपक्रम तीव्र होता है, उस समय हम उस उपक्रम-सम्बन्धी दुःखद, तीव्र व कटुक वेदना का अनुभव करते हैं और जिस समय उपक्रम तीव्र नहीं होता, उस समय हम तीव्र वेदना का अनुभव नहीं करते।' निगंठों के इस कथन व उपर्युक्त सिद्धान्त में विरोध बताते हुए मैंने उनसे कहा-'उपक्रम की तीव्रता से वेदना में तीव्रता की अनुभूति का होना और तीव्रता के अभाव में वैसा न होना; यदि तुम यही अनुभव करते हो तो अविद्या, अज्ञान व मोह से उस सिद्धान्त को उल्टा समझ रहे हो।' भिक्षुओ ! निगंठों की ओर से इसका भी मुझे कोई उत्तर नहीं मिला। __ "भिक्षओ ! मैंने उनसे और भी कई प्रश्न पूछे और उन्होंने सब में ही अनभिज्ञता व्यक्त की। मैंने उनसे पूछा-'निगंठो ! जो इसी जन्म में वेदनीय (भोग्य) कर्म हैं, क्या उन्हें दूसरे जन्म में भी वेदनीय किया सकता है ?' 'नहीं, आवुस !' 'जन्मान्तर वेदनीय-कर्म को उपक्रम-विशेष से क्या इसी जन्म के लिए वेदनीय किया जा सकता है ?' 'नहीं, आवुस !' 'सुख-वेदनीय-कर्म को उपक्रम-विशेष से क्या दुःख-वेदनीय-कर्म किया जा सकता है ?' 'नहीं, आवुस !' 'दुःख-वेदनीय-कर्म को उपक्रम-विशेष से क्या सुख-वेदनीय कर्म किया जा सकता है ?' 'नहीं, आवुस !' परिपक्व वेदनीय-कर्म को उपक्रम-विशेष से क्या अपरिपक्व वेदनीय कर्म किया जा सकता है ?' 'नहीं, आवुस !' 'अपरिपक्व वेदनीय-कर्म को उपक्रम-विशेष से क्या परिपक्व-वेदनीय-कर्म किया जा सकता है ? ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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