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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ 'अपवान' में भी अभय और महावीर के इसी घटना-प्रसंग का उल्लेख हुआ है। वहां अभय राजकुमार अपने अतीत जीवन की गाथा में महावीर से विलग होकर बुद्ध की शरण में जाने की बात कहता है। उल्लेखनीय यह है कि बुद्ध की स्तुति में भी वह वहाँ कित्तयित्वा जिनवरं, कित्तितो होमि सचदा ही कहता है । ४. कर्म-चर्चा एक समय भगवान् बुद्ध शाक्यों के देवदह निगम में विहार करते थे। भगवान में भिक्षुओं को आमंत्रित किया और उनसे कहा-"कुछ एक श्रमण-ब्राह्मणों का यह सिद्धान्त' है-'यह पुरुष सुख-दु:स्त्र या असुख या अदुःख जो कुछ भी अनुभव करता है, वह पूर्वकृत के कारण ही करता हैं। पूर्वकृत कर्मों का तपस्या द्वारा अन्त करने से व नये कर्मों के अकरण से चिस भविष्य में विपाक-रहित (अनास्रव) हो जाता है। विपाक-रहित होने से कर्म-क्षय, कमसय से दुःख-क्षय, दुख:क्षय से वेदना-क्षय और वेदना-क्षय से सभी दुख निजीर्ण हो जाते हैं। "भिक्षुओं ! उन निगंठों को जब मैं इस सिद्धान्त के बारे में पूछता हूँ, तो वे इसे ठीक बताते हैं । उनसे मैं पुनः पूछता हूँ -- 'क्या तुम यह जानते हो कि हम विगत में थे ही या नहीं थे? हमने विगत में पाप-कर्म किया ही है या नहीं किया है ? अमुक-अमुक पाप-कर्म किया है ? क्या यह भी जानते हो, इतना दु:ख-नाश हो गया है, इतना दुःख-नाश अभी करना है और इतना दुःख-नाश हो जाने पर सब दुःख का नाश हो जायेगा? क्या तुम यह भी जानते हो कि इसी जन्म में अकुशल धर्म का प्रहाण और कुशल धर्म का लाभ होना है ?' निगंठों ने मेरे इन प्रश्नों के उत्तर में अपनी अनभिज्ञता व्यक्त की। तब मैंने उनसे कहा-'जब तुम्हें यह ज्ञात ही नहीं है, तो तुम्हारा यह सिद्धान्त युक्त नहीं है । यदि तुम्हें उपर्युक्त प्रश्नों का ज्ञान होता, तो तुम्हारा सिद्धान्त युक्त हो सकता था। जैसे कोई पुरुष विष से उपलिप्त दृढ़ शर के फन से विद्ध हो जाने पर दुःखद, कटु व तीव्र वेदना का अनुभव करता है, उसके मित्र व सगे-सम्बन्धी उसे शल्य-चिकित्सक के पास ले जाते हैं । चिकित्सक उसके घाव को चीरता है। इससे वह और भी अधिक वेदना का अनुभव करता है। चिकित्सक शलाका से शल्य का परिशोधन करता है । शल्य को निकालता है। इन सभी क्रियाओं में उसे तीव्र वेदना की अनुभूति होती है। घाव पर दवा लगाने से वह क्रमशः नीरोग, सुखी व स्ववशी होकर यथेच्छ घूमने लगता है। उसे यह ज्ञात होता है, मैं शल्य से विद्ध हुआ था और क्रमशः इस प्रकार नीरोग और सुखी हुआ हूँ। यदि इसी प्रकार तुम्हें भी यह ज्ञात होता कि हम पूर्व में थे, पाप-कर्म किये थे और अमुक-अमुक किये थे आदि; तो तुम्हारा सिद्धान्त ठीक होता। किन्तु ऐसा नहीं है। अतः यह सिद्धान्त युक्त नहीं है।' 'निगंठों ने उत्तर में कहा-'आवुस ! निगंठ नातपुत्त सर्वज्ञ ; सर्वदर्शी, अखिल ज्ञानदर्शन को जानते हैं। चलते, खड़े रहते, सोते, जागते सदा-सर्वदा उन्हें ज्ञान-दर्शन उपस्थित रहता है। वे ऐसा कहते हैं—'आवुसो निगंठो ! जो तुम्हारे पूर्वकृत कर्म हैं, उन्हें इस कड़वी १. अपदान, ५५-७-२१६ से २२१ । २. निगंठ नातपुत्त का सिद्धान्त। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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