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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ पदि प्राणी अभिजाति के अनुसार सुख-दुख भोगते हैं, तो तथागत अवश्य ही उत्तम अभिजाति वाले हैं, जो वर्तमान में आनव-विहीन सुख-वेदना का अनुभव करते हैं। ५. यदि प्राणी इसी जन्म के उपक्रम-विशेष से सुख-दुख भोगते हैं, तो तथागत अवश्य ही सुन्दर उपक्रम वाले हैं, जो वर्तमान में आस्रव-विहीन सुख-वेदना का अनुभव करते हैं। ६. यदि प्राणी पूर्वकृत कर्मों के अनुसार सुख-दुख अनुभव करते हैं, तो तथागत प्रशंसनीय हैं; यदि पूर्वकृत कर्मों के अनुसार सुख-दुःख का अनुभव नहीं करते, तो भी तथागृत प्रशंसनीय हैं। ७. यदि प्राणी ईश्वर-निर्मिति से सुख-दुख अनुभव करते हैं या नहीं करते, तो भी तथागत प्रशंसनीय हैं। ८. यदि प्राणी संगति के कारण सुख-दुख की अनुभूति करते हैं या नहीं करते, तो भी तथागत प्रशंसनीय हैं। .. . यदि प्राणी अभिजाति के कारण सुख-दुख की अनुभूति करते हैं या नहीं करते, तो भी तथागत प्रशंसनीय हैं। १०. यदि प्राणी इसी जन्म के कारण सुख-दुःख की अनुभूति करते हैं या नहीं करते, तो भी तथागत प्रशंसनीय हैं।" भिक्षुओं ने सन्तुष्ट हो भगवान् के भाषण का अभिनन्दन किया। -मज्झिम निकाय, देवदह सुत्तन्त, ३-१-१ के आधार से समीक्षा उक्त प्रकरण में सर्वज्ञता और कठोर तपश्चर्या का वर्णन तो लगभग वैसा ही है, जैसा चुलदुक्खक्खन्धक सुतन्त में किया गया है। इस प्रसंग की नवीन चर्चा वेदनीय अवेदनीयकर्म की है। सभी प्रश्नों का उत्तर निगंठों से निषेध की भाषा में दिलाया गया है। वस्तुस्थिति यह है कि जैन-कर्मवाद में निकाचित कर्मावस्था की अपेक्षा से तो उक्त निषेध यथार्थ माने जा सकते हैं, किन्तु, अन्य उद्वर्तन, अपवर्तन, उदीरणा, संक्रमण आदि कर्मावस्थाओं की अपेक्षाओं से अधिकांश निषेध अयथार्थ प्रमाणित होते हैं।' ५. निर्ग्रन्थों का तप एक समय भगवान् बुद्ध शाक्य देश में कपिलवस्तु के न्यग्रोधाराम में विहार करते थे। महानाम शाक्य भगवान् के पास आया और अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। भगवान् ने उसे सम्बोधित करते हुए कहा-..."महानाम ! एक बार मैं राजगृह के गृघकूट पर्वत पर विहार कर रहा था। उस समय बहुत सारे निगंठ (जैन साधु) ऋ षि-गिरि की काल १. इसी प्रकरण का पांचवा प्रसंग । २. कर्मावस्था के भेद-प्रभेद के लिए देखें-ठाणांग सुत्त, ठा० ४। ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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