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________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त शिला पर खड़े रहने का ही व्रत ले, आसन छोड़ उपक्रम करते थे। वे दुःखद, कटु व तीव्र वेदना झेल रहे थे।' मैं सन्ध्याकालीन ध्यान समाप्त कर एक दिन उनके पास गया। मैंने उनसे कहा-'आवुसो! निगंठो तुम खड़े क्यों हो? आसन छोड़कर दुःखद, कटु व तीव्र वेदना क्यों झेल रहे हो ? निगंठों ने मुझे तत्काल उत्तर दिया-'आवुस ! निगंठ नातपुत्त सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं । वे अपरिशेष ज्ञान-दर्शन को जानते हैं। चलते, खड़े रहते, सोते, जागते; सर्वदा उन्हें ज्ञान-दर्शन उपस्थित रहता है। वे हमें प्रेरणा देते हैं : 'निगंठो ! पूर्वकृत कर्मों को इस कड़वी दुष्कर क्रिया (तपस्या) से समाप्त करो। वर्तमान में तुम काय, वचन व मन से संवृत हो; अतः यह अनुष्ठान तुम्हारे भावी, ताप-कर्मों का अकारक है। इस प्रकार पूर्वकृत कर्मों का तपस्या से अन्त हो जाने पर और नवीन कर्मों के अनागमन से तुम्हारा चित्त भविष्य में अनास्रव होगा; आस्रव न होने से कर्म-क्षय होगा, कर्म-क्षय से दुख-क्षय, दुख-क्षय से वेदना क्षय और वेदना-क्षय से सभी दुख नष्ट हो जायेंगे।' हमें यह विचार रुचिकर प्रतीत होता है। अतः हम इस क्रिया से सन्तुष्ट हैं।' "महानाम ! मैंने उनसे कई प्रश्न पूछे-'क्या तुम जानते हो, हम पहले थे ही या नहीं थे ? हमने पूर्व समय में पाप कर्म किये ही हैं या नहीं किये हैं ? क्या तुम यह भी जानते हो, अमुक-अमुक पाप-कर्म किये हैं ? क्या तुम यह भी जानते हो, इतना दुःख नाश हो गया है, इतना दुःख नाश करना है और इस दुःख नाश होने पर सब दुखों का नाश हो जायेगा ? क्या तुम यह भी जानते हो, इसी जन्म में अकुशल धर्मों का प्रहाण और कुशल धर्मों का लाभ होगा?' उन्होंने मुझे नकारात्मक उत्तर दिया और इस विषय में अपनी सर्वथा अनभिज्ञता व्यक्त की। मैंने उनसे कहा-'अतएव लोक में जो रुद्र, रक्तपाणि, क्रूरकर्मा और निकृष्ट जाति वाले मनुष्य हैं, वे ही निगंठों में प्रवजित होते हैं।' “निगंठों ने मेरे कथन के प्रतिवाद में कहा-'आवुस ! गौतम ! सुख-से-सुख प्राप्य नहीं है; दुःख से सुख प्राप्य है । यदि सुख से सुख प्राप्य होता, तो राजा मागध श्रेणिक बिम्बिसार अधिक सुख प्राप्त करता । राजा मागध आयुष्यमान से बहुत सुख-विहारी हैं।' ___“मैंने उनसे कहा-'आयुष्यमान निगंठों ने अवश्य बिना कुछ सोचे ही शीघ्रता में बात कह दी। आप लोगों को तो मुझे ही पहले-पहल यह प्रश्न पूछना चाहिए था।' निगंठों ने अपनी गलती स्वीकार की और कहा-'हमने अवश्य ही शीघ्रता में यह बात कह डाली। इसे जाने दीजिए। हम अब आयुष्यमान् गौतम से पूछते हैं, दोनों में अधिक सुख-विहारी कौन है ?' * मैंने प्रतिप्रश्न प्रस्तुत करते हुए कहा-'निगंठो ! एक बात मैं तुमसे पूछता हूँ। जैसा तुम्हें उपयुक्त लगे, उत्तर देना । निगंठो ! राजा विम्बिसार बिना हिले-डुले और मौन रखते हुए सात अहोरात्र एकान्त सुख का अनुभव करते हुए विहार कर सकता है ?' 'नहीं, आवुस !' 'छः अहोरात्र ।' 'नहीं, आवुस !' 'पांच अहोरात्र, चार अहोरात्र, तीन अहोरात्र, दो अहोरात्र और एक अहोरात्र भी ऐसा अनुभव कर सकता है ?' 'नहीं, आवुस !' ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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