________________
आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:१ 'किन्तु निगंठो ! मैं बिना हिले-डुले और मौन रहकर एक अहोरात्र, दो अहोरात्र, तीन अहोरात्र, चार अहोरात्र, पांच अहोरात्र, छः अहोरात्र और सात अहोरात्र तक भी एकान्त सुख का अनुभव करता हुआ विहार कर सकता हूँ। इससे तुम सहज ही अनुमान कर सकते हो कि ऐसा होने पर राजा बिम्बिसार और मेरे बीच, दोनों में कोन अधिक सुखविहारी है ?
“निगंठों ने एक स्वर से उत्तर दिया- 'ऐसा होने पर तो आयुष्मान् गौतम अधिक सुख-विहारी हैं।"
भगवान् बुद्ध से यह सारा उदन्त सुनकर महानाम शाक्य सन्तुष्ट हुआ और उसने भगवान् के भाषण का अभिनन्दन किया।
-मज्झिम निकाय, चूलदुक्खक्खन्ध सुत्तन्त, १-२-४ के आधार से
समीक्षा यहाँ सर्वज्ञता और कठोर तपश्चर्या का जो दिग्दर्शन कराया गया है, वह जन मान्यता से प्रतिकूल नहीं है । अन्य वितर्क तो साम्प्रदायिक पद्धति के हैं ही।
६. असिबन्धक पुत्र प्रामणी
एक समय भगवान् गौतम नालन्दा में प्रावारिक आम्र-वन में विहार करते थे। निगंठों का शिष्य असिबन्धक पुत्र ग्रामणी भगवान् के पास आया। एक ओर बैठ गया। भगवान् ने उससे पूछा- "ग्रामणी ! निगंठ नातपुत्त अपने श्रावकों (शिष्यों) को क्या धर्मोपदेश करता है ?"
"भन्ते ! जो प्राणों का अतिपात करता है, अदत्त ग्रहण करता है, व्यभिचार में आसक्त होता है, झूठ बोलता है, वह नरक में पड़ता है। जो व्यक्ति इन कार्यों को जितना अधिक करता है, उसकी वैसी ही गति होती है । निगंठ नातपुत्त अपने श्रावकों को यही धर्मोपदेश करता है।"
“ग्रामणी ! निगंठ नातपुत्त के सिद्धान्तानुसार तो कोई भी व्यक्ति नरकगामी नहीं
होगा?"
"कैसे भन्ते !"
"ग्रामणी ! एक व्यक्ति रह-रह कर दिन या रात में प्राणों का अतिपात करता ही रहता है ; फिर भी तुम बतलाओ उसका समय जीव-हिंसा करने में अधिक लगता है या जीव. हिंसा नहीं करने में ?"
"भन्ते ! यह तो स्पष्ट ही है । उसका अधिकांश समय तो जीव-हिंसा के उपराम में ही व्यतीत होगा।"
"ग्रामणी ! तो फिर 'जो-जो अधिक करता है, उसकी वैसी ही गति होती है'; निगंठ नातपुत्त का यह सिद्धान्त यथार्थ कैसे ठहरेगा ?"
"ग्रामणी ! एक व्यक्ति रह-रह कर दिन में या रात में झूठ बोलता है, अदत्त-ग्रहण करता है या व्यभिचार करता है। फिर भी तुम बतलाओ उसका अधिक समय झूठ बोलने में,
____Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org