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________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ३७७ अदत्त-ग्रहण में या व्यभिचार में लगता है अथवा झूठ न बोलने में, अदत्त-ग्रहण न करने में, व्यभिचार न करने में?" ___ "भन्ते ! यह भी स्पष्ट ही है। उसका अधिकांश समय झूठ न बोलने में, अदत्त-ग्रहण न करने में और व्यभिचार के उपराम में ही व्यतीत होगा।" "ग्रामणी ! निगंठ नातपुत्त का सिद्धान्त इस प्रकार यथार्थता से दूर जाता है। कुछ एक आचार्य ऐसा मानते हैं और उपदेश करते हैं - 'जो जीव-हिंसा करता है, झूठ बोलता है। वह नरक में जाता है ।' उस आचार्य के प्रति श्रावक बड़े श्रद्वालु होते हैं।" 'श्रावक के मन में चिन्तन उभरता है, मेरे आचार्य का ऐसा वाद है कि 'जो जीव हिंसा करता है, वह अपाय-गामी होता है।' मैंने भी प्राण-हिंसा की है; अतः मैं भी अपायगामी हूँ। ग्रामणी ! जब तक वह इस सिद्धान्त, चिन्तन व दृष्टि का परित्याग नहीं करेगा; मर कर अपाय में जायेगा। "ग्रामणी ! संसार में अर्हत्, सम्यक् सम्बुद्ध, विद्या-चरण-सम्पन्न, सुगति-प्राप्त, लोकविद, अनुत्तर, पुरुष-दम्य साथी, देवताओं और मनुष्यों के गुरु भगवान् बुद्ध उत्पन्न होते हैं। वे अनेक प्रकार से जीव-हिंसा की निन्दा करते हैं और जीव-हिंसा से विरत रहने का उपदेश देते हैं। वे ऐसे ही अनेक प्रकार से झूठ बोलने, अदत्त-ग्रहण करने व व्यभिचार की निन्दा करते हैं और झूठ, अदत्त-ग्रहण व व्यभिचार से विरत होने का उपदेश देते हैं । उनके प्रति श्रावक श्रद्धालु होते हैं । "वह श्रावक ऐसा सोचता है-'भगवान् ने अनेक प्रकार से जीव-हिंसा से उपरत रहने का उपदेश दिया है। क्या मैंने भी कभी कुछ जीव-हिंसा की है ? हाँ, मैंने भी जीव-हिंसा की है। वह उचित नहीं है, सम्यक् नहीं है । उसी कारण मुझे पश्चात्ताप करना होगा। मैं उस पाप से अछूता नहीं रहूँगा।' इस प्रकार चिन्तन करता हुआ वह जीव-हिंसा छोड़ देता है और भविष्य में भी उससे विरत रहता हुआ पाप से बच जाता है। उसका यही चिन्तन अदत्त-ग्रहण, व्यभिचार व असत्य-भाषण के बारे में होता है। ___"वह जीव-हिंसा छोड़, उससे विरत रहता है; असत्य भाषण छोड़, उससे विरत रहता है; पैशुन्य छोड़, उससे विरत रहता है; कठोर वचन छोड़, उससे विरत रहता है; द्वेष छोड़, उससे विरत रहता है और मिथ्यादृष्टि छोड़, सम्यक् दृष्टि से युक्त होता है । "ग्रामणी ! ऐसा यह आर्य-श्रावक लोभ-रहित, द्वेष-रहित, असम्मूढ़, संप्रज्ञ, स्मृतिमान्, मैत्री-सहगत चित्त से एक दिशा को व्याप्त कर, वैसे ही दूसरी दिशा को, तीसरी व चौथी दिशा को; ऊर्ध्व, अधो व तिर्यक् दिशाओं को और सब ओर से सारे लोक को विपुल, अप्रमाण, निर्वैर, अव्यापाद, मैत्री-सहमत चित्त से व्याप्त कर विहार करता है। __ "कोई बलिष्ठ शंख-वादक अपने अल्प बल-प्रयोग से चारों दिशाओं को गुंजा देता है। वैसे ही मैत्री चेता विमुक्ति के अभ्यास-कर्ता के समक्ष संकीर्णता में डालने वाले कर्म ठहर नहीं पाते। "इसी प्रकार वह आर्य श्रावक लोभ-रहित, द्वेष-रहित, असम्मूढ़..., करुणा सहमत चित्त से...,मुदिता सहगत चित्त से..., उपेक्षा सहगत चित्त से समस्त दिशाओं को व्याप्त कर विहार करता है। संकीर्णता में डालने वाले कर्म उसके समक्ष ठहर नहीं पाते।" Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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