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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १
___ असिबन्धक पूत्र ग्रामणी भगवान से बहत प्रभावित हआ। उसने निवेदन किया"आश्चर्य, भन्ते ! आश्चर्य, भन्ते ! जैसे औंधे को सीधा कर दे, आवत को अनावृत कर दे, मार्ग-विस्मृत को मार्ग बता दे, अन्धेरे में तेल का दीपक जला दे; जिससे सनेत्र देख सकें; उसी प्रकार भगवान् ने अनेक प्रकार से धर्म को प्रकाशित किया। मैं भगवान् की शरण ग्रहण करता हूँ, धर्म व भिक्षु-संघ की भो। आज से मुझे अंजलिबद्ध शरणागत उपासक स्वीकार करें।
-संयुत्त निकाय, संखसुत्त, ४०-१८ के आधार से -
समीक्षा
आगम-साहित्य में असिबन्धक पुत्र ग्रामणी नाम का कोई व्यक्ति नहीं मिलता। त्रिपिटक-साहित्य में भी 'ग्रामणी संयुत्त' के अतिरिक्त और कहीं इसकी चर्चा विशेषतः नहीं मिलती। 'ग्राम का अगुआ' इस अर्थ में इसे 'ग्रामणी' कहा गया है।
अहिंसा, सत्य आदि चार यमों की चर्चा यहाँ की गई है। बुद्ध ने इनका खण्डन किया है, पर, यथार्थ में वाक्-चातुर्य से अधिक वह कुछ नहीं । वस्तुतः तो बुद्ध स्वयं अहिंसा, सत्य आदि को इसी प्रकरण में उपादेय बतलाते हैं । पंचशील में भी चार शील चतुर्याम धर्म रूप ही तो है।' प्रस्तुत प्रकरण में मैत्री, करुणा आदि चार भावनाओं का सम्मुल्लेख हुआ है, जो पातञ्जल योगदर्शन तथा जैन-परम्परा में भी अभिहित हैं।
७. नालन्दा में दुभिक्ष
भगवान बुद्ध एक बार कौशल में चारिका करते हुए बृहद् भिक्षु-संघ के साथ नालन्दा आये और प्रावारिक आम्रवन में ठहरे। नालन्दा में उन दिनों भारी दुर्भिक्ष था। आजपाल में जनता के प्राण निकल रहे थे। जनता सूखकर शलाका बन गई थी, मृत मनुष्यों की उजली हड़ियाँ यत्र-तत्र बिखरी हुई थीं। निगंठ नातपुत्त निगंठों की बृहद् परिषद के साथ उस समय वहीं वास करते थे। असिबन्धक पुत्र ग्रामणी निगंठ नातपुत्त का श्रावक था। वह अपने शास्ता के पास गया और अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। निगंठ नातपुत्त ने उससे कहा- "ग्रामणी ! तू श्रमण गौतम के साथ शास्त्रार्थ कर। इससे दूर-दूर तक तेरा सुयश फैलेगा। जनता कहेगी, असिबन्धक पुत्र ग्रामणी इतने बड़े ऋद्धिमान् तेजस्वी श्रमण गौतम के साथ शास्त्रार्थ कर रहा है।"
१. “यो पाणं नातिपातेति मुसावादं न भासति,
लोके अदिन्नं नादियति परदारं न गच्छति, सुरामेरयपानं च यो नरो न नुपुञति, पहाय पञ्च वेरानि सीलवा इति वुच्चति ।।'
-अंगुत्तर निकाय, पंचकनिपात, ५।१६।१७८ २. समाधिपाद, १।३३। ३. शान्तसुधारस भावना, १३ से १६ ।
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