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________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त ३७६ ___ “भन्ते ! इतने बड़े ऋद्धिमान् तेजस्वी श्रमण गौतम के साथ मैं शास्त्रार्थ कैसे करूगा?" "ग्रामणी ! श्रमण गौतम के पास जा और उससे पूछ-'भन्ते ! भगवान् तो अनेक प्रकार से कुलों के उदय, अनुरक्षा और अनुकम्पा का वर्णन करते हैं ?' श्रमण गौतम इस प्रश्न का यदि स्वीकारात्मक उत्तर दे तो तू उसे पुनः पूछना- 'भन्ते ! दुभिक्ष के इस विकाठ समय में भी आप इतने बड़े भिक्षु-संघ के साथ यहाँ चारिका कर रहे है, तो क्या आप कुल्ले के नाश व उनके अहित के लिए तुले हुए हैं ?' इस प्रकार पूछने पर श्रमण गौतम न उगल सकेगा और न निगल सकेगा।" असिबन्धक पुत्र ग्रामणी निगंठ नातपुत्त को अभिवादन व प्रदक्षिणा कर चला और गौतम बुद्ध के पास आया 1 अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। ग्रामणी ने भगवान् से उक्त प्रश्न किया और कहा-"क्या आप इस प्रकार कुलों के नाश व उनके अहित के लिए तुले हुए हैं ?" भगवान् ने उत्तर दिया- "ग्रामणी ! आज से एकानवे कल्प तक का मैं स्मरण करता हूँ, किन्तु एक कुल को भी ऐसा नहीं पाता, जो घर में पके भोजन में से भिक्षा देने के कारण उपहत हो गया हो, अपितु जो कुल आढय, महाधन-सम्पन्न, महाभोग-सम्पन्न, स्वर्ण-रजत सम्पन्न, वस्तु-उपकरण-सम्पन्न व धन-धान्य-सम्पन्न हैं, वे सभी दान, सत्य और श्रामण्य के फल से हुए हैं। कुलों के उपघात के तो आठ हेतु होते हैं : १. राजा द्वारा कुल नष्ट कर दिया जाता है, २. चोर द्वारा कुल नष्ट कर दिया जाता है, ३. अग्नि द्वारा कुल नष्ट कर दिया जाता है, ४. पानी द्वारा कल नष्ट कर दिया जाता है. ५. गड़े धन का अपने स्थान से चला जाना, ६. अच्छे तौर से न की हुई खेती नष्ट हो जाती है, ७. कुल-अंगार पैदा हो जाने से, जो सम्पत्ति को फूंक देता है, चौपट कर देता है, विध्वंस कर देता है और ८. सभी पदार्थों की अनित्यता। "ग्रामणी ! ये आठ हेतु कुलों के उपघात के लिए हैं। इनके होते हुए भी जो मुझे यह कहे- 'भगवान् कुलों के सताने व उनके उपघात के लिए तुले हुए हैं, वह इस बात को बिना छोड़े, इस विचार को बिना छोड़े, इस धारणा का बिना परित्याग किये, मरते ही नरक में जायेगा।" असिबन्धक पुत्र ग्रामणी भगवान् के इस कथन से बहुत प्रभावित हुआ। सहसा उसके मुख से उदान निकला-"आश्वर्य, भन्ते ! आश्चर्य, भन्ते ! ... आज से मुझे अञ्जलिबद्ध शरणागत उपासक स्वीकार करें।" -संयुत्त निकाय, कुलसुत्त, ४०-१-६ के आधार से ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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