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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १
कहते हैं- "गौतम बुद्ध अब संग्रहशील और साधनाभ्रष्ट हो गया है। पहले यह कृशकाय तपस्वी था। अब यह सरस आहार से उपचित हो गया है।"
सुजाता खीर बनाने के लिए सहस्र गायों का दूध पाँच सौ गायों को पिलाती है। इसी क्रम से सोलह गायों का दूध आठ गायों को। दूध को स्निग्ध, स्वादु और बल-प्रद बनाने के लिए जैन परम्परा में भी ऐसा उल्लेख मिलता है। चक्रवर्ती की खीर इसके लिए प्रसिद्ध उदाहरण है। उस खीर को बनाने में पुण्ड्र-ईक्षुक के खेतों में चरने वाली एक लाख गायों का दूध पच्चास हजार गायों को पिलाया जाता है । इसी क्रम से एक गाय तक पहुँच कर उसके दूध की खीर बनाई जाती है । इसे कल्याण भोजन कहा जाता है । श्री देवी और चक्रवर्ती ही इसे खाते हैं और उनके लिए ही वह सुपाच्य होता है।'
कैवल्य-साधना
आयारग में महावीर की साधना का विशद् वर्णन मिलता है। वहाँ बताया गया है : महावीर ने दीक्षा ली, उस समय उनके शरीर पर एक ही वस्त्र था। लगभग तेरह मास तक उन्होंने उस वस्त्र को कंधों पर रखा। दूसरे वर्ष जब आधी शरद् ऋतु बीत चुकी, तब वे उस वस्त्र को त्याग सम्पूर्ण अचेलक अनगार हो गए । शोत से त्रसित होकर वे बाहुओं को समेटते न थे, अपितु यथावत् हाथ फैलाये विहार करते थे। शिशिर ऋतु में पवन जोर से फुफकार मारता, कड़कड़ाती सर्दी होती, तब इतर साधु उससे बचने के लिए किसी गर्म स्थान की खोज करते, वस्त्र लपेटते और तापस लकड़ियां जलाकर शीत दूर करने का प्रयत्न करते; परन्तु, महावीर खुले स्थान में नंगे बदन रहते और अपने बचाव की इच्छा भी नहीं करते। वहीं पर स्थिर होकर ध्यान करते । नंगे वदन होने के कारण सर्दी-गर्मी के ही नहीं, पर, दंश-मशक तथा अन्य कोमल-कठोर स्पर्श के अनेक कष्ट वे झेलते थे।
महावीर अपने निवास के लिए कभी निर्जन झोपड़ियों को चुनते, कभी धर्मशालाओं को, कभी प्रपा को, कभी हाट को, कभी लुहार की शाला को, कभी मालियों के घरों को, कभी शहर को, कभी श्मशान को, कभी सूने घरों को, कभी वृक्ष की छाया को तो कभी घास की गंजियों के समीपवर्ती स्थान को। इन स्थानों में रहते हुए उन्हें नाना उपसर्गों से जूझना होता था । सर्प आदि विषैले जंतु और गीध आदि पक्षी उन्हें काट खाते थे। उद्दण्ड मनुष्य उन्हें नाना यातनाएँ देते थे, गाँव के रखवाले हथियारों से उन्हें पीटते थे और विषयातुर स्त्रियां कामभोग के लिए उन्हें सताती थीं। मनुष्य और तिर्यञ्चों के दारुण उपसर्गों और कर्कश-कठोर शब्दों के अनेक उपसर्ग उनके समक्ष आये दिन प्रस्तुत होते रहते थे। जार पुरुष उन्हें निर्जन स्थानों में देख चिढ़ते, पीटते और कभी-कभी उनका अत्यधिक तिरस्कार कर चले
१. चक्रवर्ति-संबन्धिनीनां पुण्ड्रेक्षुचारिणीनामनातङ्कानां गवां लक्षस्यार्द्धिक्रमेण पीतगोक्षीरस्य पर्यन्ते यावदेकस्याः गोः संबन्धि यत क्षीरं तत्प्राप्तकलमशालिपरमान्नरूपमनेकसंस्कारकद्रव्यसंमिश्रं कल्याणभोजनमितिप्रसिद्ध, चक्रिणं स्त्रीरत्नं च बिना अन्यस्य भोक्तुर्दुर्जरं महदुन्मादकं चेति ।
-जम्बूदीवपण्णत्ति वृत्ति, वक्ष० २
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