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________________ २७६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ सब बुद्ध की शरण में जाओ।" तदनन्तर वे सब गृधकूट पर्वत पर आये और बुद्ध के शरणा गत हए।' श्रेणिक बिम्बिसार ने अपने राज-वैद्य जीवक कौमार भृत्य को बुद्ध और भिक्षु-संघ की चिकित्सा के लिए नियुक्त किया था, जिसका उल्लेख प्रमुख उपासक-उपासिकाये प्रकरण में किया जा चुका है । बिम्बिसार द्वारा भिक्षु-भिक्षुणियों के लिए आवास-निर्माण का भी उल्लेख मिलता है। पेतवत्थ अट्ठकथा के अनुसार श्रेणिक बिम्बिसार प्रतिमास अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा को उपोसथ करता था।' कारावास में दर्शन महायान के अमितायुान सुत्त के अनुसार अपने जीवन के सांध्य में श्रेणिक बिम्बिसार जब कारावास में था, तब उसे मौग्गल्लान भिक्षु अपने ऋद्धि-बल से वहीं प्रकट होकर दर्शन देते और धर्म सूक्त सुनाते। बिम्बिसार ने वहीं बैठे ऐसा चाहा था और वैसे ही होने लगा। बिम्बिसार की पत्नी वैदेही भी एक पृथक् कारावास में दे दी गई थी। उसकी प्रार्थना पर बुद्ध के वहाँ प्रकट होने का भी उल्लेख है। ___धम्मपद-अट्ठकथा के अनुसार लिच्छवियों के प्रतिनिधि महाली के आमन्त्रण को स्वीकार कर जब बुद्ध वैशाली की ओर चले, तब श्रेणिक बिम्बिसार गंगा-तट तक उन्हें पहुंचाने के लिए आया। उसने इस प्रसंग से राजगृह से गंगा तक नवीन पथ का निर्माण कराया। उसे फूलों से सजवाया, मंजिल-मंजिल पर विश्राम-गृह बनवाये । बुद्ध नौका में बैठे । नौका चली। बिम्बिसार नौका को पकड़े-पकड़े पानी में चला । गले तक पानी आया, तब वापस मुड़ा । जब तक बुद्ध वैशाली से वापस नहीं आये, वहीं गंगा-तट पर डेरे डाल कर रहा। फिर बुद्ध को लेकर राजगृह में आया। ललितविस्तर में बुद्ध और भिक्षु-संघ के लिए नौका-विहार सदा के लिए निःशुल्क कर देने का भी उल्लेख है। पक्कुसाति-प्रतिबोध __मज्झिम निकाय के धातुविभंग सुत्त की अट्ठकथा में बताया गया है-"एक बार बिम्बिसार की राज्य-सभा में तक्षशिला के कुछ व्यापारी आये । प्रसंग से उन्होंने अपने राजा पक्कुसाति की गुण-चर्चा की। उसे गुणों से और वय से बिम्बिसार के समान ही बताया। दोनों राजाओं के बीच सन्देशों के आदान-प्रदान से मैत्री हो गई । राजगृह के व्यापारी तक्षशिला में तथा वहां के यहाँ कर-मुक्त कर दिए गए। पक्कुसाति ने पाँच पंचरगें शाल बिम्बसार को भेंट में भेजे । बिम्बिसार ने एक स्वर्ण-पट पर बुद्ध की प्रशस्ति लिखा कर उसे भेंट में भेजी। पक्कुसाति बुद्ध को देखने राजगृह तक पैदल आया और भिक्षु-संघ में प्रविष्ट हो गया।" १. विनय पिटक, महावग्गो, चम्मखन्धक, पृ० १६६ । २. विनय पिटक, चुल्लवग्ग, क्षुद्र कवस्तुस्कंधक, पृ० ४५८ । ३. गा० २०६ ४. s. b. e., vol. XLIV, p. 166. ५. खंड 3, पृ०४३८ क्रमशः; Dictionary of Pali Proper Names, Vol, II. P., 288, ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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