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इतिहास और परम्परा
अनुयायी राजा
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मृत्यु के बाद
दीघ निकाय के जनवसभ सुत्त में बिम्बिसार की लोकोत्तर गति का भी वर्णन है। आनन्द ने कहा-"भन्ते! आपने अनेक देशों के अनेक उपासकों की लोकोत्तर गति का बखान किया है, श्रेणिक बिम्बिसार भी तो धार्मिक, धर्म राजा बुद्ध का शरणागत था । वह मृत्यु-धर्म प्राप्त हो, किस गति, किस लोक में उत्पन्न हुआ, यह उल्लेख भी करें।"
आनन्द के इस अनुरोध पर बुद्ध ने ध्यान लगाया। आत्म-शक्ति केन्द्रित की। यह जानने का प्रयत्न किया कि बिम्बिसार किस गति में सुख-दुःख पा रहा है।
एक दिव्य यक्ष प्रकट हआ और बोला . "भन्ते ! मैं जनवसभ हुँ, मैं जनवसभ... मैं जनवसभ हूँ। मैं ही बिम्बिसार हूं।" तब बुद्ध ने जाना और आनन्द के सम्मुख प्रकट कियाबिम्बिसार यक्ष-योनि में जनवसभ नामक यक्ष हआ है।
थेरी गाथा में बिम्बिसार की एक रानी खेमा का बौद्ध भिक्षु-संघ में दीक्षित होने का भी उल्लेख है, जो महाप्रज्ञाओं में अनगण्या मानी गई है।
आगम-साहित्य में पूर्वोक्त सारे ही समुल्लेख अपने आप में सुस्पष्ट हैं । केवल इन्हीं के आधार पर हमें निर्णय करना हो, तो यह निस्सन्देह माना जा सकता है कि श्रेणिक बिम्बिसार बुद्ध का ही उपासक था। आगम-साहित्य की छानबीन में जब हम जाते हैं तो इनसे भी कहीं अधिक इतने ही सुस्पष्ट उल्लेख हमें वहाँ मिल जाते हैं। महावीर के सम्पर्क में
मगधराज श्रेणिक को अनाथी निर्ग्रन्थ से धर्म-बोध मिला, यह उल्लेख हम कर आये हैं। दसासुयक्खंध में महावीर के साक्षात् सम्पर्क और उनके प्रति रही असाधारण श्रद्धा का परिचायक एक ज्वलन्त प्रकरण है । वहाँ बताया गया है - "उस काल उस समय में राजगृह नगर था । उसके बाहर गुणशिल उद्यान था। श्रेणिक राजा राज्य करता था। एक दिन अपनी उपस्थान शाला में राज-सिंहासन पर बैठे श्रेणिक ने कौटुम्बिक (राजकर्मचारी) पुरुषों को बुलाया और उनसे कहा-देवानुप्रियो ! तुम जाओ और राजगृह नगर के बाहर जितने ही आराम, उद्यान, शिल्पशालायें, आयतन, देवकुल, सभाएं, प्रपायें, उदकशालायें, पन्यशालायें, भोजनशालाएं, चूने के भठे, व्यापार की मंडियाँ, लकड़ी आदि के ठेके, मूंज आदि के कारखाने है, उनके जो-जो अध्यक्ष हैं, उनसे जाकर कहो--देवानुप्रियो ! श्रेणिक राजा भंभसार आदेश करता है-'जब श्रमण भगवान् महावीर इस नगर में आयें, तुम लोग स्थान, शयनासन आदि ग्रहण करने की उन्हें आज्ञा दो और उनके आने के संवाद को मेरे तक पहुँचाओ।' कौटुम्बिक पुरुषों ने ऐसा ही किया।
"उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर राजगृह में आए, परिषद् जुटी। आराम आदि के स्वामी एकत्रित हो, श्रेणिक के पास आए और कहने लगे-'स्वामिन् ! जिनके दर्शन को आप उत्सुक हैं, जिनके नाम-गोत्र सुनकर आप हर्षित होते हैं, वे धर्म-प्रवर्तक तीर्थङ्कर, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी भगवान् महावीर गुणशिल चैत्य में विराजमान हैं।'
"इस संवाद को सुनकर श्रेणिक हर्षित और सन्तुष्ट हुआ। सिंहासन से उठकर सातआठ कदम आगे जा, वहीं से उसने भगवान् महावीर को वंदन किया। तदनन्तर संवादवाहकों को पारितोषिक दे, उसने सेनापति, वाहनाधीश आदि को बुलाया, चतुरङ्गिणी सेना सुसज्जित करने का आदेश दिया और धर्म-रथ सुसज्जित करने को कहा।
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