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आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन
- 'देवप्रिये ! तथारूप
"यह सब करके वह रानी चेलणा के पास आया और बोलाअरिहन्त भगवान् के दर्शन बहुत फलदायक होते हैं । इसलिए हम चलें, श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन करें. नमस्कार करें, उनका सत्कार और सम्मान करें । ये महावीर कल्याणकारी, मंगलकारी, देवाधिदेव और ज्ञानी हैं । वहाँ चलकर पर्युपासना करें। यह पर्युपासना हमारे इस लोक के लिए, परलोक के लिए, सुख के लिए, क्षेम के लिए, मोक्ष के लिए यावत् भव-परम्परा में फलदायक होगी ।' यह सब सुनकर चेलणा आनन्दित हुई, प्रफुल्लित हुई ।
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“चेलणा स्नानादि कर्म से निवृत्त हुई । बहुमूल्य वस्त्र और आभूषणों से परिसज्जित हुई । राजा श्रेणिक के साथ धार्मिक यान पर आरूढ़ हुई । क्रमशः गुणशिल उद्यान में आई । महावीर के अभिमुख हुई। तीन प्रदक्षिणा से अभिवन्दन किया । कुशल प्रश्न पूछे तथा राजा श्रेणिक को आगे कर महावीर की पर्युपासना में लीन हुई ।
"महावीर ने धर्म-कथा कही । परिषद् विसर्जित हुई । श्रेणिक की दिव्य ऋद्धिको देखकर कतिपय भिक्षुओं के मन में आया - 'धन्य है यह श्रेणिक भंभसार, चेलणा जैसी रानी और मगध जैसे राज्य को भोग रहा है । हमारी भी तप साधना का कोई फल हमें मिले तो यही कि हम भी आगामी जीवन में ऐसे ही मनोरम काम-भोगों को प्राप्त करें ।' चेलणा की दिव्य ऋद्धि को देखकर कतिपय भिक्षुणियों के भी मन में आया --- ' धन्य है यह चेलणा । हमारी तप साधना का कोई फल हो तो आगामी जीवन में हमें भी ऐसे काम-भोग मिलें ।'
खण्ड : १
" महावीर ने भिक्षु भिक्षुणियों के इस निदान को अपने ज्ञान-बल से जाना । उन्हें एकत्रित किया । निदान के कुफल से उन्हें परिचित कराया । भिक्षु भिक्षुणियों ने अपने दुस्संकल्प की आलोचना की । "
प्रस्तुत प्रकरण महावीर के प्रति श्रेणिक भंभसार की भक्ति का परिचायक होने के साथ-साथ इस बात का भी संकेत करता है कि यह प्रकरण श्रेणिक और महावीर के प्रथम सम्पर्क का होना चाहिए । इसमें चेलणा आगे होकर महावीर से मिलती है और फिर वह श्रेणिक को आगे कर उनकी पर्युपासना करती है । जैन परम्परा यह मानती है कि श्रेणिक पहले इतर धर्मावलम्बी था । चेलणा अपने पितृ पक्ष से ही निर्ग्रन्थ-धर्म को मानने वाली थी । प्रथम सम्पर्क में ही चलणा का आगे होकर महावीर का साक्षात्कार करना संगत होता है । भिक्षु भिक्षणियों का श्रेणिक और चेलणा को देखकर निदान बद्ध होना भी प्रथम सम्पर्क में अधिक सहज है ।
अणुतरोववाहसाओ आगम में बताया गया है-- राजा श्रेणिक ने भगवान् के दर्शन किए और देशना के अन्त में पूछा – “भन्ते ! आपके इन्द्रभूति आदि चौदह सहस्र श्रमणों में सर्वाधिक तप करने वाला और सर्वाधिक कर्मों की निर्जरा करने वाला कौन है ?" भगवान् ने कहा - "श्रेणिक ! धन्य अनगार उत्कृष्ट तपस्वी और उत्कृष्ट सुनकर श्रेणिक हर्षित हुआ । धन्य अनगार के पास आया और धन्य हो, कृतपुण्य हो ।" वहां से पुनः भगवान् महावीर को वन्दन
निर्जरा- परायण है ।" यह बोला - " देवानुप्रिय ! तुम कर अपने प्रासाद लौटा ।'
णायाधम्मकहाओ — के ३ वें अध्ययन में भी श्रेणिक के सदल-बल महावीर के दर्शन करने का उल्लेख है 1
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१. अणुत्तरोववाइदसाओ, तृतीय वर्ग, सू. ४ ।
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