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इतिहास और परम्परा
अनुयायी राजा
२७६ राजकुमारों की दीक्षा
मेधकुमार के दीक्षा-प्रसंग पर भी श्रेणिक निर्ग्रन्थ-धर्म की प्रशस्ति में कहता है - "निम्रन्थ-धर्म सत्य है, प्रधान है, परिपूर्ण है, मोक्षमार्ग है, तर्क-सिद्ध है और निरुपम है । उस (भिक्षु-धर्म) का ग्रहण लोहे के चने चबाने की तरह कठिन है।"
श्रेणिक के अन्य पुत्र नन्दीसेन ने भी महावीर के समवसरण में दीक्षा ग्रहण की।
ऐसा भी उरलेख मिलता है कि श्रेणिक ने एक बार अपने राज-परिवार, सामन्तों तथा मंत्रियों के बीच यह उद्घोषणा की-"कोई भी भगवान् महावीर के पास दीक्षा ग्रहण करे, मैं रोदूंगा नहीं।" कहा जाता है, इस घोषणा से प्रेरित हो, श्रेणिक के जालि, मयालि आदि २३ पुत्र महावीर के पास दीक्षित हुए। नन्दा, नन्दमती आदि १३ रानियां दीक्षित
नरक-गमन और तीर्थङ्कर पद ।
एक बार समवसरण में श्रेणिक महावीर की पर्यपासना कर रहा था। एक कष्ठी भी उसके निकट आ बैठा । महावीर को छींक आई । कुष्ठी बोला-'मर रे।' श्रेणिक को छींक आई। कुष्ठी बोला---'जी रे।' अभयकुमार को छींक आई। कुष्ठी बोला-'जी, चाहे मर।' महाकसाई कालशौरिक ने छींका । कष्ठी बोला-'न मर, न जी।' इस असम्बद्ध प्रलाप पर श्रेणिक के सैनिकों ने उसे पकडना चाहा, पर, वह देखते-देखते अन्तर्धान हो गया। श्रेणिक ने महावीर से इस देव-माया का हाल पछा। महावीर ने कहा--"यह देव था और इसने जो कहा. सब सत्य कहा। मझे मरने के लिए कहा, इसलिए कि मेरे लिए आगे मोक्ष है। तुम्हें जीने के लिए कहा, इसलिए कि तुम्हारे आगे नरक है अर्थात् तुम्हें यहाँ से मर कर नरक पहुंचना है। अभयकुमार यहाँ भी मनुष्य है, धर्मनिष्ठ है । आगे भी उसे देवगति में जाना है; इसलिए उसे कहा-मर, चाहे जी। महाकसाई कालशौरिक यहाँ भी बीभत्स जीवन जीता है, आगे भी उसे नरक मिलना है; इसलिए उसे कहा---न मर, न जी।"
श्रेणिक अपने नरक-गमन की बात सुनकर स्तब्ध रहा । बोला - "भगवन्! क्या आपकी उपासना का यही फल सबको मिलता है?'' महावीर बोले-"राजन्! ऐसा नहीं है। तुमने मृगया-गृद्धि के कारण नरक का आयुष्य बहुत पहले से बांध रखा है। मेरी उपासना का फल तो यह है कि जैसे मैं इस चौबीसी का अन्तिम तीर्थङ्कर हूँ, नरक गति से निकलते ही तू आगामी चौबीसी का प्रथम कीर्थङ्कर पद्यनाभ होगा।" श्रेणिक इस महान सँवाद को सुनकर अत्यन्त आनन्दित और प्रफुल्लित हुआ।
अपने नरक-गमन को टाल सकने का उपाय भी श्रेणिक ने महावीर से पछा। महावीर ने कहा-"कपिला ब्राह्मणी दान दे तथा कालशौरिक जीव-वध छोड
म्हारा नरक-गमन टल सकता है।" श्रेणिक की बात न कपिला ने मानी और न कसाई ने मानी।
१. णायाधम्मकहाओ १११। २. त्रिषष्टिशालाकापुरुषचरित्रम्, पर्व १०, सर्ग ६ । विस्तार के लिए देखें, 'भिक्षु-संघ
और उसका विस्तार' प्रकरण। ३. आचार्य गुणचन्द्र, महावीर चरियं, पृ.० ३३४-१ । ४. अणुत्त रोववाइदसाओ, वर्ग १, अ० १-१०; वर्ग १, अ० १-१३ । ५. अन्तगडदसाओ, वर्ग ७, अ० १.१३ । ६. पद्मनाभ तीर्थङ्कर का विस्तृत वर्णन, ठाणांग , ठा० ६ उ० ३, सूत्र ६६३ में उप
लब्ध है।
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