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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १
बलात् दान दिलवाना प्रारम्भ किया, तो कपिला बोली- “दान मैं नहीं दे रही हूँ, राजा ही दे रहा है।" कालशौरिक को कूएं में डाल दिया गया, तो वहाँ भी ५०० मिट्टी के भैसे बना कर उनका वध किया ।' तात्पर्य, न ये दोनों बातें होने वाली थीं, न नरक टलने वाला था। केवल प्रतिबोध के लिए महावीर ने श्रेणिक को ये दो मार्ग बतलाए थे। राजर्षि प्रसन्नचन्द्र
___महावीर और श्रेणिक के अनेक संस्मरण जैन वाङ्मय में प्रचलित हैं। राजर्षि प्रसन्नचन्द्र का इस सम्बन्ध में एक प्रेरक प्रसंग है। ये पोतनपुर के राजा थे। महावीर के पास दीक्षित हुए। राजगृह में समवसरण के बाहर एक दिन ये ध्यान-मुद्रा में खड़े थे। श्रेणिक की सवारी आयी । दुर्मुख सेनापति ने राजर्षि के विषय में कहा-“यह ढोंगी है और अबुद्ध भी। अल्पवयस्क राजकुमार को राज सौंप प्रव्रज्या का ढोंग रचा है। इसके मंत्री शत्र राजा से मिलकर राज हड़पने लगे हैं।" ध्यानस्थ राजर्षि के कानों में यह शब्द पड़े। मन में उथल-पुथल मच गई । शत्रुओं पर, मंत्रियों पर रोष उमड़ पड़ा। श्रेणिक भी राजर्षि को वन्दन करके महावीर के पास पहुंचा। प्रश्न पूछा-"प्रसन्नचन्द्र मुनि ध्यान-मुद्रा में अभीअभी काल-धर्म को प्राप्त हों तो किस गति को प्राप्त करेंगे?" भगवान् महावीर ने कहा'सप्तम नरक।' राजा विस्मित रहा। कुछ समय ठहर कर उसने और पछ लिया ---"भगवन्! यदि अब वे काल-धर्म को प्राप्त हों तो?" महावीर ने कहा-"सर्वार्थ सिद्ध, जो परमोच्च देव-गति है। राजन्! विस्मय की बात नहीं है। परिणामों की तरतमता ही मूल आधार है। प्रथम प्रश्न के समय उसके मन में द्वन्द्व चल रहा था। दूसरे प्रश्न के समय राजर्षि अपने आपको संभाल चुका है और आत्म-विमर्षण में लग चुका है ।" श्रेणिक का महावीर के साथ यह संलाप चल ही रहा था कि प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने कैवल्य प्राप्त कर लिया। आकाश में देव-दुंदुभि बजने लगी । श्रेणिक अर्हत् शासन की इस महिमा को देख कर झूम
उठा।
चउपन्न महापुरिस चरियं के अनुसार इन्द्र ने एक प्रशंसा की.-श्रेणिक के समान श्रद्धाशील और धार्मिक अभी कोई नहीं है । इन्द्र की इस बात से रुष्ट हो एक देव श्रेणिक की परीक्षा लेने आया। निर्ग्रन्थ-धर्म में उसे सब से दृढ़ पाकर देव प्रसन्न हुआ। उसी देव ने श्रेणिक को वह ऐतिहासिक अठारहसरा हार दिया, जो आगे चलकर 'रथमूसल संग्राम' व 'महाशिला कंटक संग्राम' का एक निमित्त बना।
दिगम्बर मान्यता के अनुसार महावीर की प्रथम देशना राजगह के विपुलाचल पर श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को हुई। मगध राज श्रेणिक सपरिवार एवं सपरिकर उस समवसरण में उपस्थित था । वह उपासक-संघ का अग्रणी था तथा साम्राज्ञी चेलणा उपासिका-संघ की अग्रणी थी।
जैन या बौद्ध ? । उक्त जैन पुरावों पर ध्यान देते हैं, तो कोई प्रश्न ही नहीं रहता कि श्रेणिक दृढ़धर्मी जैन श्रावक नहीं था, पर, जब बौद्ध और जैन दोनों ओर के पुरावों को सामने रख कर एक
१. त्रिषष्टि शालाकापुरुषचरित्रम्, पर्व १०, सर्ग ६ । २. वही। ३. भारतीय इतिहास : एक दृष्टि, पृ० ६५ ।
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