SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इतिहास और परम्परा] अनुयायी राजा २८१ तटस्थ चिन्तन करते हैं, तो दोनों पलड़े सम हो जाते हैं । श्रेणिक को अपना उपासक व्यक्त करने में किसी और के पुरावों को न्यून या अधिक कह पाना कठिन है, पर, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि दोनों ही परम्पराओं के उक्त पुरावों की ऐतिहासिक समीक्षा में जाएं, तो बहुत सारे पुरावे उत्तरकालिक सिद्ध होंगे, जो समय-समय पर पुराण-ग्रन्थों में जोड़े जाते रहे हैं। जैसे, रायस डेविड्स का कहना है -"कूटदन्त सुत्त काल्पनिक प्रतीत होता है। कूटदन्त नामक कोई व्यक्ति था, ऐसा अन्यत्र कोई प्रमाण नहीं मिलता।" एडवर्ड थॉमस का अभिमत है-“बिम्बिसार और बुद्ध की प्रथम भेट का एक जनश्रु ति से अधिक महत्व नहीं है । वह नाना स्थलों पर नाना रूपों में मिलती है । प्राचीन पालि-रन्थों में वह मिलती ही नहीं ।,'२ जैन पुरावों की समीक्षा में जायें, तो उनमें भी कुछ एक जनश्रुतिपरक ही माने जा सकते हैं । अस्तु, पुरावे कुछ भी हों, कैसे भी हों, उनकी वास्तविकता और काल्पनिकता के बीच कोई सीधी रेखा नहीं खींची जा सकती। जिन्हें हम काल्पनिक सोचते हैं, उस सोचने का आधार भी तो हमारी कल्पना ही है । इस स्थिति में वास्तविकता और अवास्तविकता की छान-बीन का मार्ग भी हमें किसी निश्चित बिन्दु पर नहीं पहुंचा सकता। इस विषय में निर्णायक प्रकाश महावीर, बुद्ध और बिम्बिसार के कालक्रम से ही मिल सकता है । 'काल-गणना' प्रकरण में तीनों के कालक्रम पर व्यवस्थित और प्रमाणोपेत विचार कर चुके हैं। उसके अनुसार कैवल्य-प्राप्त महावीर और श्रेणिक की समसामयिकता १३ वर्षों की होती है तथा बोधि-प्राप्त बुद्ध की और बिम्बिसार की समसामयिकता केवल ३ वर्षों की होती है । इन ३ वर्षों में महावीर भी वर्तमान होते हैं। महावीर कैवल्य-प्राप्ति का प्रथम वर्षावास भी राजगृह में करते हैं। उसी वर्षावास के प्रारम्भ में श्रेणिक सम्यक्त्वधम तथा अभयकुमार आदि श्रावक-धर्म स्वीकार करते है। श्रणिक के निग्रेन्य-धर्म स्वीकार करने की बात अनाथी श्रमण के प्रसंग में भी आ चुकी है। हो सकता है, उसी का विधिवत् रूप यहाँ बना हो। अस्तु, श्रेणिक का महावीर के साथ घनिष्ठ सम्पर्क कैवल्य-लाभ के प्रथम वर्ष में ही हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं। उस घनिष्ठ सम्पर्क का ही परिणाम माना जा सकता है कि वह अपने कुमारों और रानियों को निबाध दीक्षित होने देता है और स्वयं उनके दीक्षा समारोह मनाता है । मेघकुमार और नन्दीसेन की दीक्षा तो इसी प्रथम वर्षावास में हो जाती है। हो सकता है, श्रेणिक की इस असाधारण श्रद्धा के परिणामस्वरूप ही महावीर ने राजगृह में पुनः-पुन: चातुर्मास किए हों। श्रेणिक स्वभाव से ही आध्यात्मिक संस्कारों का व्यक्ति था। बुद्ध के उदय से पूर्व ही महावीर का राजगृह में पुन:-पुनः आगमन होता रहा । इस स्थिति में वह महावीर का १. Dialogues of Buddha, Part 1, P. 163. २. Life of Buddha, PP.68-80. ३. तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृ० ११ । ४. (क) श्रुत्वा तां देशनां भर्तुः सम्यक्त्वं श्रेणिकोऽश्रयत् । श्रावकम त्वभयकुमाराद्याः प्रपेदिरे ।। -त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, पूर्व १०, सर्ग ६, श्लोक ३७६ (ख) एमाई धम्मकहं सोउं सेणिय निवाइया भव्वा । समत्तं पडिवन्ना, केई पुण देशविरयाइ ॥ -नेमिचन्द्र रचित, महावीर चरियं, गा० १२६४ ५. तीर्थकर महावीर, भाग २, पृ० ११-१६ । ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy