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२८२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १ अनुयायी न बन गया हो, यह सोचा भी नहीं जा सकता । साथ-साथ यह भी सम्भव नहीं लगता कि जीवन के अपने अन्तिम चार वर्षों में महावीर की वर्तमानता में ही वह निर्ग्रन्थ-धर्म को छोड़ कर बौद्ध-धर्म को स्वीकार कर ले, जब कि अनेकानेक रानियाँ और राजकुमार महावीर के पास दीक्षित हो चुके थे । प्रो० दलसुखभाई मालवणिया का यह कथन भी यथार्थ नहीं लगता कि महावीर ने उसका नरक-गमन बताया है, इससे ऐसा प्रतीत होता है कि वह अन्त में बौद्ध-धर्म का अनुयायी हो गया था । ऐसा ही होता तो महावीर नरक-गति के अनन्तर ही श्रेणिक को अपने ही जैसा 'पद्मनाभ' तीर्थङ्कर होने की बात क्यों कहते ?
बौद्ध-न्थ महावंश में बताया गया है- बुद्ध बिम्बिसार से ५ वर्ष बड़े थे । वे ३५ वर्ष की आयु में बुद्धत्व प्राप्त कर राजगृह आये । बिम्बिसार १५ वर्ष की आयु में अभिषिक्त हुआ। अपने शासन काल के १६वें तथा अपने जीवन के ३१वें वर्ष में बुद्ध की शरण में आया। तदन्तर ३७ वर्ष बुद्ध की वर्तमानता में वह जीवित रहा । अजातशत्रु के राजगद्दी पर बैठने के ८ वर्ष पश्चात् बुद्ध का परिनिर्वाण हुआ। महावंश का उल्लेख यथार्थ नहीं है। उसकी अयथार्थता पर 'काल-गणना' प्रकरण में विस्तार से विचार किया जा चुका है ।
श्रेणिक की निर्ग्रन्थ-धर्म की घनिष्ठता का एक प्रमाण यह भी है कि उसकी रानियाँ और राजकुमार महावीर के पास जितनी बड़ी संख्या में दीक्षित हुए हैं, उस अपेक्षा में बुद्ध के पास दीक्षित होने वालों की संख्या नगण्य है।
श्रेणिक के परम्परागत जैन होने का भी आधार मिलता है । उसके पिता के सम्बन्ध में बताया ग . है - वह पार्श्व-परम्परा का सम्यग्दृष्टि और अणुव्रती उपासक था। डॉ० काशीप्रसाद जायसवाल के अनुसार श्रेणिक के पूर्वज काशी से मगध में आये थे । यह भी माना जाता है कि काशी का यह वही राजवंश था, जिसमें तीर्थङ्कर पार्श्व पैदा हुए थे। इस आधार पर यह सोचा जा सकता है, श्रेणिक का कुल-धर्म जैन-धर्म ही रहा है। जैन अनुश्रुति के अनुसार भी श्रेणिक अपने कुलधर्म से जैन होते हुए भी अपने निर्वासन-काल में जैन-धर्म से विमुख हो गया था। हो सकता है, उसी समय वह शिथिलाचारी श्रमणों को मानने लगा हो, जिसका संकेत हमें अनाथी श्रमण के प्रसंग में भी मिलता है । अस्तु, जिसके पूर्वज जैन और जिसका पिता जैन उस श्रेणिक का जन्म-जात जैन होना सहज बात है।
जीवन के अन्तिम चार वर्षों में उसका सम्बन्ध बुद्ध और बौद्ध भिक्षु-संच से भी रहा, इसमें संदेह नहीं; पर, वह सम्बन्ध सौहार्द और सहानुभूति से अधिक गहरा प्रतीत नहीं होता।
__ उक्त तथ्य की पुष्टि में एक सबल प्रणाम यह है कि राजगृह महावीर और निर्ग्रन्थसंघ का ही प्रमुख केन्द्र था। महावीर ने स्वयं वहाँ १४ वर्षावास बिताये । अनेक बार शेषकाल में भी वे वहाँ आते रहे । राजगृह के लोग पहले से भी पार्श्व-परम्परा को मानते आ रहे थे।
१. स्थानांग-समवायांग (गुजराती अनुवाद), पृ० ७४१ । २. महावंश, परिच्छेद २, गा०२६-३२ । ३. श्रीमत्पावजिनाधीश-शासनाम्भोजषट्पदः। सम्यग्दर्शन पुण्यात्मा, सोऽणुव्रतधरोभवत् ॥
-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक ८ ४. भारतीय इतिहास : एक दृष्टि, पृ० ६२ ।
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