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________________ इतिहास और परम्परा ] अनुयायी राजा २८३ इसमें संदेह नहीं होना चाहिए कि राजगृह के निर्ग्रन्थ-संघ और महावीर का केन्द्र होने में श्रेणिक की अनुयायिता भी एक प्रमुख आधार थी । बुद्ध और बौद्ध भिक्षु संघ का केन्द्र राजगृह नहीं, श्रावस्ती था । वहीं अनाथपिण्डिक का जेतवन था और वहीं विशाखा मृगारमाता का पूर्वाराम। वहीं बुद्ध का परम अनुयायी राजा प्रसेनजित् था । वहाँ बुद्ध ने स्वयं २६ वर्षावास बिताये, जबकि राजगृह में केवल पाँच । महावीर ने श्रावस्ती में केवल एक वर्षावास बिताया। उल्लेखनीय बात यह है कि महावीर ने जिस प्रकार श्रेणिक के तीर्थङ्कर होने की घोषणा की, वैसे ही बुद्ध ने प्रसेनजित् के लिए बुद्ध होने की घोषणा की। कुल मिलाकर यही यथार्थ लगता है कि श्रेणिक महावीर का अनुयायी था और प्रसेनजित् बुद्ध का । श्रेणिक के विषय में डॉ० वी० ए० स्मिथ का भी अभिमत है " वह अपने आप में जैन-धर्मावलम्बी प्रतीत होता है। जैन-परम्परा उसे राजा संप्रति के समान ही जैन-धर्म का प्रभावक मानती है ।"" उसी ग्रन्थ में वे आगे लिखते हैं- "महावीर अपने मातृक सम्बन्ध के कारण विदेह, मगध और अंग आदि देशों के राजगुरु थे । बिम्बिसार और अजातशत्रु से उनका व्यक्तिगत सम्पर्क था; ऐसे अनेक उल्लेख मिलते हैं । यह भी प्रतीत होता है कि बिम्बिसार और अजातशत्र ू; इन दोनों ने महावीर के सिद्धान्तों का अनुसरण किया था ।' नाम चर्चा भिभिसार आदि जैन आगामों में श्रेणिक के लिए भंभसार, भिभिसार, भिभसार शब्दों का प्रयोग भी बहुतायत से मिलता है ।" उत्तरवर्ती संस्कृत प्राकृत ग्रन्थों में भंभासार शब्द ही मुख्ततः प्रयुक्त १. अनागतवंश; Di tionary of Puli Proper Names, vol 11, P. 174. R. He appears to have been a Jain in religion, and sometimes is coupled by Jain tradition with Asoka's grandson, Samprati, as a notabe petron of the creed of Mahavira. - The Oxford History of India, P, 45 3. Being related through his mother to the reigning kings of Videha, Magadha and Anga, he was in a position to gain official patronage for his teaching, and is recorded, to have been in personal touch with both Bimbisara and Ajatasatru, who seem to have followed his doctrine. ४. ( क ) सेणिए भंभसारे । -- The Orford History of India, P. 51, 52 णायाधम्मक हाओ, श्रु०१, २०१३ ( पत्र १८६ - २ ) दसासुयक्खन्ध, दशा १० सू० १ आदि । (ख) सेणिए भंभसारे, सेणिए भिभसारे । उववाई सुत्त, सू० ७ पृ० २३; सू० पृ० २५; सू० २९ पृ० ११५ (ग) सेणिए भिभिसारे । -- ठाणांग सुत्त, ठा० ६, पत्र ४५८ - २ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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