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________________ २८४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:१ हुआ है।' भंभा, भिंभा और भिभि-ये शब्द भेरी के अर्थ में एकार्थवाची माने गए हैं। विविध ग्रन्यों में इस नामकरण का एक ही हार्द बताया गया है ----महलों में आग लग जाने से सभी राजकुमार विविध वस्तुएं लेकर भागे। श्रेणिक ‘भंभा' को ही राजचिह्न के रूप में सारभूत समझकर भागा। इसलिए उसका नाम भंभासार पड़ा। श्री विजयेन्द्र सूरि ने केवल भम्भासार शब्द को ही यथार्थ माना है। अन्य सब नामों को अशुद्ध ठहराने का प्रयत्न किया है, पर, यह उचित नहीं लगता। ये सभी शब्द मूल आगमों में अनेकधा प्रयुक्त हुए हैं । 'भंभा' के अतिरिक्त भिंभ' आदि शब्द भंभावाची न भी होते हों, जैसे कि विजयेन्द्र सूरि का कहना है, तो भी श्रेणिक के नाम के साथ उनका योग तो है ही । अतः ये संज्ञावाची होकर अपने अर्थ के वाचक हो ही जाते है । आर्ष संज्ञाओं के विषय में अशुद्ध होने का कोई प्रश्न बनता ही नहीं। विजयेन्द्र सूरि ठांणांग वृत्ति से प्रमाणित करते हैं -"भभा' ति ढक्का सा सारो यस्य स भंभासारः।" लगता है, यह प्रमाण दृष्टि-दोष से ही उन्होंने अपने पक्ष में प्रयुक्त कर लिया है। वस्तुतः जिस प्रति से उन्होंने यह पंक्ति उद्धृत की है, उस प्रति में तो प्रत्युत यह बताया गया है-"र्भािभ' ति ढक्का सा सारो यस्य स तथा (भिभिसारः)।" जिस पाठ की वहाँ व्याख्या की जा रही है, वह पाठ भी तो स्पष्टतः "सेणिराया भिभिसारे" ही है। वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि उसी प्रसंग में भी तो स्पष्ट करते हैं—'तेन कुमारत्वे प्रदीपनके जयढक्का गेहान्निष्का षिता ततः पित्रा भिभिसार उक्तः। डॉ० पिशल ने भी भिभिसार शब्द को यथार्थ ही माना है। बिम्बिसार बौद्ध परम्परा में श्रेणिक का अन्य नाम बिम्बिसार माना गया है । 'बिम्ब' अर्थात् स्वर्ण । स्वर्ण के समान वर्ण होने के कारण बिम्बिसार नाम पड़ा। तिब्बती-परम्परा में माना गया है -श्रेणिक की माता का नाम बिम्बि था; अतः उसे बिम्बिसार कहा जाता था। ___ भिभिसार और बिम्बिसार नाम एक दूसरे के बहुत निकट प्रतीत होते हैं । इनकी समानता का हार्द अन्वेषणीय है । हो सकता है, एक ही नाम भाषा व उच्चारण आदि के भेद से दो रूपों में चल पड़ा हो । श्रेणिक १. अभिधान चिन्तामणि, काण्ड ३, श्लो० ३७६; उपदेशमाला सटीक, पत्र ३३४; ऋषि मण्डल प्रकरण, पत्र १४३; श्रीभरतेश्वर बाहुबली वृत्ति, प्रथम विभाग, पत्र २२; आवश्यक चूणि, उत्तरार्ध, पत्र १५८ । २. पाइयसद्दमहण्णवो, पृ० ७६४,८०७ । ३. सेणिय कुमारेण पुणो जयढक्का कड्ढिया पविसिऊणं पिऊण तुठेण तओ सी भंभासारो। -उपदेशमाला सटीक, पत्र ३३४-१ ४. तीर्थकर महावीर, भा॰ २, पृ० ६३० से ६३३ । ५. आगमोदय समिति, प्रकाशन-सन् १६२० । ६. पत्र ४६१-१। ७. Grmmatic Derprakrit Sprachen Para. २०१. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, अनु० डॉ हेमचन्द्र जोशी, बिहार राष्ट्र-भाषा परिषद्, पटना, पृ० ३१३ । ८. उदान अट्ठकथा, १०४ । E. W.W. Rockhill, Life of Buddha, P.88. Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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