________________
इतिहास और परम्परा] काल-निर्णय
११७ अशोक का राज्याभिषेक- ई०पू० २६६ । अशोक का संघ-उपेत होना- ई० पू० २४८ ।'
उक्त शिलालेखों का लिखा जाना- ई० पू० २४७ । इस प्रकार हम ई० पू० २४७ से २५५ वर्ष और पीछे जाते हैं, तो बुद्ध-निर्वाण का समय आता है-२४७+२५५= ई० पू० ५०२ ।
४. बर्मी परम्परा
। परम्परा सम्बद्ध प्रमाणों में सबसे सबल प्रमाण बर्मी परम्परा का है। बर्मा में 'ईत्झाना (Eetzana) नामक संवत् का प्रचलन माना जाता है । ईत्झाना शब्द का अर्थ है-अंजन । कहा जाता है, यह संवत् बुद्ध के नाना 'अंजन' ने प्रचलित किया था। राजा अंजन शाक्य क्षत्रिय थे और उनका राज्य देवदह प्रदेश में था। बर्मी परम्परा के अनुसार उस संवत् की काल-गणना में बुद्ध के जीवन-प्रसंग इस प्रकार माने जाते हैं :
१. बुद्ध का जन्म : ईत्झाना संवत् के ६८वें वर्ष में, काटसन (वैशाख) मास में,
पूर्णिमा के दिन शुक्रवार को, जब चन्द्रमा का विशाखा-नक्षत्र के साथ योग था। २. बुद्ध का गृहत्याग (दीक्षा) : ईत्झाना संवत् के ६६ वें वर्ष में जुलाई (आषाढ़)
मास में, पूर्णिमा के दिन सोमवार को, जब चन्द्रमा का उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के साथ
योग था। ३. बुद्ध की बोधि-प्राप्ति : ईत्झाना संवत् के १०३वें वर्ष में, काटसन (वैशाख)
मास में, पूर्णिमा के दिन, बुधवार को जब चन्द्रमा का विशाखा नक्षत्र के साथ योग था।
१. डा० राधाकुमुद मुखजी ने बताया है कि अशोक के संघ-उपेत होने के पश्चात् ही उसने विदेश में जोर-शोर से धर्म प्रचार का कार्य प्रारम्भ किया था । इतिहासकारों ने महेन्द के लंका-प्रवास की तिथि ई० पू० २४६ मानी है (Cambridge History of India. p. 507) । अतः अशोक के 'संघ उपेत' होने की ई०पू० २४८ की तारीख
पुष्ट हो जाती है। २. डॉ० फ्लीट का यह अभिमत कि बुद्ध-निर्वाण के २५६वें वर्ष और यात्रा के २५६वें पड़ाव
में उक्त शिलालेख लिखा गया, यह 'व्युठेना सावने कटे २५६ सत विवासात' का अर्थ न होना चाहिए ; बहुत ही यथार्थ है। इसके साथ हम इतना और जोड़ सकते हैं कि
उक्त शिलालेख लिखे जाने का वह निर्वाण दिवस सम्भवत: कुशीनारा में ही आया हो, जहाँ कि बुद्ध भगवान् का निर्वाण हुआ था और अशोक की यात्रा का वह एक
प्रमुख पड़ाव था। ३. Bigandet, Life of Gaudama, val. I, p. 13. ४. lbid, vol. II pp.71-72. ५. 'काटसन बर्मी' भाषा में 'वैशाख' का पर्यायवाची शब्द है। ६. Bigandet, Life of Gaudama vol. I, pp. 62-63 ; vol. II, p 72. ७. Ibid, vol. I, P 97.; vol. II pp. 72-73.
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org