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इतिहास और परम्परा]
महावीर और बुद्ध में कोई बहुत बड़ा ऐतिहासिक महत्व नहीं रखता, फिर भी, तथाप्रकार के समुल्लेखों के साथ अपना एक स्थान अवश्य बना लेता है।
पं० सुखलालजी ने चार तीर्थकर में व बौद्ध विद्वान् श्री धर्मानन्द कोसम्बी ने पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म में यही धारणा व्यक्त की है कि भगवान् बुद्ध ने पार्श्वनाथ की परम्परा को अवश्य स्वीकार किया था, भले ही ऐसा थोड़े समय के लिये हुआ हो। वहीं उन्होंने केश-लुंचन आदि की साधनाएं कीं और 'चातुर्याम' का मर्म पाया।
सुप्रसिद्ध इतिहासकार डा० राधाकुमुद मुकर्जी कहते हैं-“वास्तविक बात यह ज्ञात होती है कि बु
कि बद्ध ने पहले आत्मानभव के लिए उस काल में प्रचलित दोनों साधनाओं का अभ्यास किया. आलार और उद्रक के निर्देसानकार ब्राह्मण मार्ग का और तब जैन मार्ग का और बाद में अपने स्वतन्त्र साधना-मार्ग का विकास किया। उन्होंने यह भी माना है ........वे मगध जनपद के सैनिक-सन्निवेश उरुवेला नामक स्थान में गये और वहां नदी और ग्राम के समीप, जहां भिक्षा की सुविधा थी, रहकर उच्चतर ज्ञान के लिये प्रयत्न करने लगे। इस प्रयत्न का रूप उत्तरोत्तर कठोर होता हुआ तप था, जिसका जैन धर्म में उपदेश है, जिसके करने से उनका शरीर अस्थि-पंजर और त्वचामात्र रह गया। उन्होंने श्वास-प्रश्वास और भोजन दोनों का नियमन किया एवं केवल मूंग, कुलथी, मटर और हरेणुका अपने अञ्जलिपुट की मात्रा-भर स्वल्प यूष लेकर निर्वाह करने लगे।"२
श्रीमती राइस डेविड्स का कहना है-"बुद्ध ने अपनी खोज का आरम्भ पाच परिव्राजकों के साथ किया, जो पंचवर्गीय भिक्षु कहलाते थे। उनके नाम थे—आज्ञाकौण्डिन्य, अश्वजित्, वाष्प, महानाम और भद्रिक। उन्होंने नैतिक और मानसिक जीवन में बुद्ध की बहुत प्रकार की सहायता की। उन्होंने तप करना आरम्भ किया, जिसका वैशाली के जैनों में बहुत प्रचार था। वे समकालीन सिद्धान्तों की भी चर्चा करते रहते थे। उन्होंने निर्ग्रन्थों से प्रकृति और कर्म के विषय में, आलार और उद्रक से ध्यान के विषय में एवं सांख्य से संसार विषयक ब्राह्मणेतर विचारों की पद्धति को लिया, जिसकी मथुरा या तक्षशिला में आचार्य कपिल ने सर्वप्रथम शिक्षा दी थी। और भी बहुत-सी बातों का वे पारस्परिक विचार करते थे। इस सामग्री में से गढ़कर गौतम ने अपना नया मार्ग निकाला।"3
श्रीमती राइस डविड्स ने गौतम बुद्ध द्वारा जैन तप-विधि का अभ्यास किये जाने को अन्यत्र भी चर्चाएं की हैं- "बुद्ध पहले गुरु की खोज में वैशाली पहुंचे, वहाँ आलार और उद्रक से उनकी भेंट हुई, फिर बाद में उन्होंने जैन धर्म की तप-विधि का अभ्यास किया।"४
१. डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी, हिन्दू सभ्यता, पृ० २३६, डा० वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा ___ अनूदित राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, १६५५ । २. वही, पृ० २३६-४०। ३. Mrs. Rhys Davids, Sakya, p. 123. ४. Mrs. Rhys Davids, Gautama the Man, pp. 22-25.
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