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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १ रहे हैं। सम्भव है, इतिहासकार इस सम्बन्ध में निश्चित् खोज करने में असमर्थ ही रहे हों।"
समय-समय पर कुछ लोग इस तथ्य को भले ही दुहराते रहें, इतिहास बहुत स्पष्ट हो चुका है। यह कोई नई खोज न कहलाकर अब बीते युग की रट मात्र रह गई है। जब मैंने जैन धर्म और बौद्ध धर्म का अनुशीलन आरम्भ किया, सहसा मुझे भी लगा, सहावीर और बुद्ध एक ही व्यक्ति हो सकते हैं, पर, ज्यों-ज्यों विषय की गहराई में पहुंचा, उक्त धारणा स्वतः विलीन हो गई।
बुद्ध की साधना पर निर्ग्रन्थ-प्रभाव
भगवान् महावीर गौतम बुद्ध से ज्येष्ठ थे। भगवान् बुद्ध ने जब अपना धर्म-प्रचार प्रारम्भ किया था, तब भगवान् महावीर प्रचार की दिशा में बहुत कुछ कर चुके थे। भगवान् बुद्ध के एक जीवन-प्रसंग से यह भी पता चलता है कि वे अपनी साधनावस्था में पार्श्व-परम्परा या महावीर-परम्परा से किसी रूप में सम्बद्ध अवश्य रहे हैं । अपने प्रमुख शिष्य सारिपुत्त से वे कहते हैं - "सारिपुत्त ! बोधि-प्राप्ति से पूर्व मैं दाढ़ी-मूछों का लुंचन करता था। मैं खड़ा रह कर तपस्या करता था। उकडू बैठकर तपस्या करता था। मैं नंगा रहता था। लौकिक आचारों का पालन नहीं करता था। हथेली पर भिक्षा लेकर खाता था।.......... बैठे हुये स्थान पर आकर दिये हुये अन्न को, अपने लिये तैयार किये हुये अन्न को और निमंत्रण को मी स्वीकार नहीं करता था। गर्भिणी व स्तन-पान कराने वाली स्त्री से भिक्षा नहीं लेता था।" यह समस्त आचार जैन साधुओं का है। कुछ स्थविर-कल्पिक साधुओं का और कुछ जिन-ल्पिक साधुओं का । इससे प्रतीत होता है कि गौतम बुद्ध पार्श्वनाथ-परम्परा के किसी श्रमण-संघ में दीक्षित हुये और वहाँ से उन्होंने बहुत कुछ सद्ज्ञान प्राप्त किया।
जैन शास्त्रों व प्राचीन ग्रन्थों में भगवान बुद्ध की जीवन-गाथा विशेषतः उपलब्ध नहीं होती है। दिगम्बर-परम्परा के देवसेनाचार्य (8वीं शती) कृत दर्शनसार में गौतम बुद्ध द्वारा प्रारम्भ में जैन दीक्षा ग्रहण करने का आशय मिलता है। उसमें बताया गया है-“जैन श्रमण पिहिताश्रव ने सरयू नदी के तट पर पलाश नामक ग्राम श्री पार्श्वनाथ के संघ में उन्हें दीक्षा दी और उनका नाम मुनि बुद्धिकीर्ति रखा । कुछ समय पश्चात् वे मत्स्य-मांस खाने लगे और रक्त वस्त्र पहिनकर अपने नवीन धर्म का उपदेश करने लगे।" यह उल्लेख अपने आप
१. हिन्दुस्तान, नई दिल्ली, ३१ मार्च, '६२ । २. मज्झिम निकाय, महासिंहनाद सुत्त, १११।२; धर्मानन्द कोसम्बी, भगवान् बुद्ध,
पृ०६८-६९। ३. सिरिपासणाहतित्थे सरयूतीरे पलासणयरत्थो ।
पिहियासवस्स सिस्सो महासुदी बुड्ढकित्तिमुणी । तिमिपूरणासणेहिं अहिगयपवज्जाओ परिब्भट्ठो । रत्तंबरं धरित्ता पवट्टिय तेण एयंतं ।। मंसस्स णत्थि जीवो जहा फले दहिय-दुद्ध -सक्करए । तम्हा तं बंछित्ता तं भक्खंतो ण पाविट्ठो ॥
-देवसेनाचार्य, दर्शनसार, श्लोक ६-८ पं० नाथूराम प्रेमी द्वारा सम्पादित, जैन ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, १९२० ।
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