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________________ इतिहास और परम्परा काल-निर्णय ६६ बौद्ध परम्परा की मान्यता है - 'अजातशत्रु के राज्य-काल के ८वें वर्ष से पूर्व ही बुद्ध का निर्वाण हुआ।' इन दोनों मान्यताओं की संगति तभी हो सकती है, जब कि यह माना जाये कि कोणिक को चम्पा का राजा मानने वाली जैन-गणना का प्रारम्भ कोणिक के चम्पा-शाखा के राज्याभिषेक से हुआ है और बौद्ध-गणना का प्रारम्भ राजगृह के राज्याभिषेक से हुआ उक्त विवेचन में विशेष ध्यान देने की एक बात यह भी है कि वर्तमान के इन इतिहास विशेषज्ञों ने डॉ० जेकोबी और शार्पेन्टियर द्वारा माने गये महावीर और बुद्ध के निर्वाण-सम्बन्धी काल-क्रम को कोई मान्यता नहीं दी है : इसका मूलभूत कारण यही है कि तब से अब तक ऐतिहासिक धारणाओं में अनेक अभिनव उन्मेष आ चुके हैं। तीनों इतिहासकारों ने महावीर के निर्वाण-प्रसंग के सम्बन्ध में दो तथ्यों को मूलभूत माना है और एतद्विषयक निर्णय में उनकी सुरक्षा पूर्ण अपेक्षित मानी है। एक तो महावीरनिर्वाण के तीन तिथि-क्रमों में से उन्होंने ई० पू० ५२८ के तिथि-क्रम को सर्वाधिक विश्वस्त माना है। दूसरा तथ्य बौद्ध पिटकों में आने वाले महावीर के निर्वाण-सम्बन्धी सम्मुल्लेख है। ‘महावीर का निर्वाण बुद्ध से पूर्व हुआ, यह तो उन्होंने निश्चित माना ही है और ऐसे तिथि-क्रम की अपेक्षा व्यक्त की है, जो इन तथ्यों को साथ लेकर चल सके । उक्त विवेचन में अल्पता की बात यह रही है कि यहां जीवन-प्रसंगों को तो संगति देने का प्रयन्न किया गया है, पर उनके साथ किसी भी काल-क्रम को संगत करने का पर्याप्त प्रयास नहीं किया गया। कालक्रम की दृष्टि से महावीर-निर्वाण उन्होंने ई० पू० ५२८ माना है और बुद्ध-निर्वाण को कैन्टनीज-परम्परा के अनुसार ई० पू०४८६ माना है। ऐसी स्थिति में महावीर और बुद्ध का व्यवधान ४२ वर्ष का पड़ जाता है। इतने व्यवधान के रहते महावीर और बुद्ध के जीवनप्रसंगों में कोई संगति नहीं बैठ सकती। अपेक्षा है, ऐसे काल-क्रम को अपनाने की, जो उन जीवन्त जीवन-प्रसंगों के साथ संगत हो सके। अनुसंधान और निष्कर्ष सर्वाङ्गीण दृष्टि महावीर और बुद्ध की समसामयिकता और उनके निर्वाण का प्रश्न पहले पहल उपलब्ध इतिहास के केवल सामान्य तथ्यों पर हल किया जाने लगा था; फिर कुछ विद्वानों ने बौद्ध पिटकों की तह में जाकर इस विषय का अनुसन्धान आरम्भ किया तो कुछ विद्वानों ने जैन शास्त्रों की तह में जाकर । सामान्य इतिहास जहां आगमों और त्रिपिटकों की पुट पाए बिना अपूर्ण था, वहां आगमों और त्रिपिटकों की एकांगी छान-बीन ने सारे विषय पर कुछ साम्प्रदायिक रंग ला दिया। कुछ एक लोगों ने बौद्ध पिटकों को अक्षरशः प्रमाण माना और जैन आगमों को साधारणतया; तो कुछ एक लोगों ने जैन आगमों को अक्षरशः प्रमाण माना व बौद्ध पिटकों को साधारणतया । यह ऐतिहासिक पद्धति नहीं हो सकती । प्रस्तुत विषय के सर्वाङ्गीण निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए सामान्य ऐतिहासिक आधारों, बौद्ध पिटकों के सम्मुल्लेखों और जैन आगमों के निरूपणों को सन्तुलित रखते हुए ही कुछ सोचना होगा । इस विषय में हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि आगम और त्रिपिटक क्रमशः जैन और बौद्ध Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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