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________________ १२० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ मस्तक पर छत्र धारण करूँगा । कषाय-रहित होने से ये मुनि श्वेत वस्त्र पहनते हैं और मैं कषाय-कालुष्य से युक्त हूँ; अतः इसकी स्मृति में काषायित वस्त्र पहनूंगा। ये सचित्त जल के परित्यागी हैं, पर, मैं वैसे परिमित जल से स्नान भी करूंगा तथा पीऊँगा भी। अपनी बुद्धि से वेश की इस तरह परिकल्पना कर तथा उसे धारण कर वह भगवान् ऋषभदेव के साथ ही विहरण करने लगा । साधुओं की टोली में इस अद्भुत साधु को देखकर कौतूहलवश बहुत सारे व्यक्ति उससे धर्म पूछते । उत्तर में वह मूल तथा उमर गुण-सम्पन्न साधु-धर्म का ही उपदेश करता । जब उसे जनता यह पूछती कि तुम उसके अनुसार आचरण क्यों नहीं करते, तो वह अपनी असमर्थता स्वीकार करता । उसके उपदेश से प्रेरित होकर यदि कोई भव्य दीक्षित होना चाहता तो वह उसे भगवान् के समवसरण में भेज देता और भगवान् उसे दीक्षा-प्रदान कर देते। कपिल __भगवान् ऋषभदेव की सेवा में विहरण करते हुए मरीचि का काफी समय बीत चुका । एक बार वह रोगाक्रान्त हुआ। उसकी परिचर्या करने वाला कोई नहीं था; अतः वेदना से पराभूत होकर उसने स्वयं के शिष्य बनाने का सोचा । संयोग की बात थी, एक बार भगवान् ऋषभदेव देशना (प्रवचन) दे रहे थे । कपिल नामक एक राजकुमार भी परिषद में उपस्थित था। उसे वह उपदेश रुचिकर प्रतीत नहीं हुआ। उसने इधर-उधर अन्य साधुओं की ओर भी दृष्टि दौड़ाई। सभी साधुओं के बीच विचित्र वेश वाले उस त्रिदण्डी मरीचि को भी उसने देखा । वह वहाँ से उठकर उसके पास आया । धर्म का मार्ग पूछा तो मरीचि ने स्पष्ट उत्तर दिया—"मेरे पास धर्म नहीं है । यदि तू धर्म चाहता है तो प्रभु का ही शरण ग्रहण कर ।" वह पनः भगवान ऋषभदेव के पास आया और धर्म-श्रवण करने लगा। किन्त अपने दषित विचारों से प्रेरित होकर वह वहाँ से पुनः उठा और मरीचि के पास जाकर बोला--"क्या तुम्हारे पास जैसा-तैसा भी धर्म नहीं है; यदि नहीं है तो फिर यह संन्यास का चोगा कैसे?" "दैवयोग से यह भी मेरे जैसा ही मालूम होता है। चिर-काल से सदृश विचार वाले का मेल हुआ है । मेरे असहाय का यह सहायक हो।" इन विचारो में निमग्न मरीचि ने उत्सूत्र प्ररूपणा करते हए कहा-"वहाँ भी धर्म है और यहाँ भी।" इस मिथ्यात्वपर्ण संभाषण से उसने उत्कट संसार बढ़ाया । कपिल को दीक्षित कर उसने अपना शिष्य बनाया और उसे पच्चीस तत्त्वों का उपदेश देकर अलग मत की स्थापना की। जैन पुराणों में यह भी माना गया है कि आगे चलकर कपिल का शिष्य आसुरी व आसुरी का शिष्य सांख्य बना। कपिल व सांख्य ने मरीचि द्वारा बताये गए उन पच्चीस तत्त्वों की विशेष व्याख्या की जो एक स्वतन्त्र दर्शन के रूप में प्रसिद्ध हआ। कपिल और सांख्य उस दर्शन के विशेष व्याख्याकार हए हैं; अत: वह दर्शन भी कपिल दर्शन या सांख्य दर्शन के नाम से विश्रुत हुआ । वस्तुतः मरीचि इसका मूल संस्थापक था।' भावी तीर्थङ्कर कौन ? भरत ने एक बार भगवान् ऋषभदेव से पूछा-"प्रभो! इस परिषद् में ऐसी भी कोई आत्मा है, जो आपकी तरह तीर्थ की स्थापना कर इस भरत क्षेत्र को पवित्र करेगी ?" . भगवान ने उत्तर दिया ... "तेरा पुत्र मरीचि प्रथम त्रिदण्डी' परिव्राजक है । इसकी आत्मा अब तक कर्म-मल से मलिन है । शुक्ल ध्यान के अवलम्बन से क्रमशः वह शुद्ध होगी। १. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, प्रथम पर्व, सर्ग ६, श्लो० १ से ५२; आदि पुराण, पर्व १८; श्री आवश्यक सूत्र, नियुक्ति मलयगिरि वृत्ति, पत्र सं० २३२-२ से २३४-१ के आधार पर। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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