SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूर्व भव जैन और बौद्ध परम्परा में पूर्वभव-चर्चा भी समान पद्धति से मिलती है । महावीर और बुद्ध की भव-चर्चा में तो एक अनोखी समानता भी है। प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव ने अनेक भव पूर्व मरीचि तापस को लक्ष्य कर कहा--"यह अन्तिम तीर्थकर महावीर होगा।" इसी प्रकार अनेक कल्पों पूर्व दीपंकर बुद्ध ने सुमेध तापस के विषय में कहा-“यह एक दिन बुद्ध होगा।" महावीर की घटना उनके पच्चीस भव पूर्व की है । बुद्ध की घटना पाँच सौ इक्यावन भव पूर्व की है। मरीचि तापस विचारों में शिथिलता __ मरीचि भरत का पुत्र था। सुर-असुरों द्वारा की गई भगवान् ऋषभदेव के केवल ज्ञान की महिमा को देखकर वह भी अपने पांच सौ भाइयों के साथ निर्ग्रन्थ बना था। वह ग्यारह ही अंगों का ज्ञाता था और प्रतिदिन भगवान ऋषभदेव के साथ उनकी छाया की तरह विहरण करता था। एक बार भयंकर गर्मी से वह परिक्लान्त हो गया। सारा शरीर पसीने से तरबतर हो गया । पसीने व मलिन वस्त्रों के कारण उसके शरीर से दुर्गन्ध उछलने लगी । प्यास के मारे उसके प्राण निकलने लगे । गर्मी व तत्सम्बन्धी अन्य परिषहों से वह इतना पराभूत हआ कि श्रामण्य की सामान्य पर्याय से भी नीचे खिसक गया तथा अन्य नाना संकल्प-विकल्पों का शिकार बन गया। उसके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ.--"प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेव का मैं पौत्र हूँ। अखण्ड छः खण्ड के विजेता प्रथम चक्रवर्ती भरत का मैं पुत्र हूँ। चतुर्विध तीर्थ के समक्ष वैराग्य से मैंने प्रवज्या ग्रहण की है । संयम को छोड़कर घर चले जाना मेरे लिए लज्जास्पद है, किन्तु, चारित्र के इतने बड़े भार को अपने इन दुर्बल कन्धों पर उठाये रखने में भी मैं सक्षम नहीं हूँ। महाव्रतों का पालन अशक्य अनुष्ठान है और इन्हें छोड़कर घर चले जाने से मेरा उत्तम कुल मलिन होगा। इतो व्याघ्र इतस्तटी एक ओर व्याघ्र है और दूसरी ओर गहरी नदी। किन्तु, जिस प्रकार पर्वत पर चढ़ने के लिए संकरी पगडण्डी होती है, उसी प्रकार इस कठिन मार्ग के पास कोई सुगम मार्ग भी होना चाहिए।" त्रिदण्डी अपने ही विचारों में खोया हुआ मरीचि आगे और सोचने लगा- भगवान् ऋषभदेव के साधु मनोदण्ड, वचनदण्ड और कायादण्ड को जीतने वाले हैं और मैं इनसे जीता गया हूँ;अतः त्रिदण्डी बनूंगा । इन्द्रिय-विजयी ये श्रमण केशों का लुन्चन कर मुण्डित होकर विचरते हैं। मैं मुण्डन कराऊँगा और शिखा रखूगा । ये निर्ग्रन्थ सूक्ष्म व स्थूल दोनों प्रकार के प्राणियों के वध से विरत हैं और मैं केवल स्थूल प्राणियों के वध से ही उपरत रहूँगा। मैं अकिञ्चन भी नहीं रहूँगा और पादुकाओं का प्रयोग भी करूंगा। चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्यों का विलेपन करूँगा। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy