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इतिहास और परम्परा]
प्रमुख उपासक-उपासिकाएं
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निर्ग्रन्थों के अतिरिक्त किसी को भी देव व गुरु नहीं मानती। उसे इस श्रद्धा से कोई भी शक्ति विचलित नहीं कर सकती । अम्बड़ ने पद्मासन समाप्त कर दिया और एक निर्ग्रन्थ के वेष में वह सुलसा के घर आया। अम्बड़ केवल आकृति से ही निर्ग्रन्थ नहीं बना, अपितु, उसके प्रत्येक क्रिया-कलाप में उसकी सजीव झलक थी। सुलसा ने उसे देखा, तो नमस्कार किया और भक्तिपूर्वक सम्मान भी । अम्बड़ ने अपना असली रूप बनाया और भगवान् महावीर द्वारा की गई उसकी व्रत-प्रशंसा की सारी घटना सुनाई। वह भी उसके मुक्त कंठ से गुण-गान करने लगा।'
सम्यक्त्व में दृढ़ होने के कारण सुलसा ने तीर्थङ्कर नाम-गोत्रकर्म का उपार्जन किया। आगामी चौबीसी में वह निर्मम नामक पन्द्रहवाँ तीर्थङ्कर होगी।
गृहपति अनाथपिण्डिक प्रथम सम्पर्क
गृहपति अनाथपिण्डिक सुदत्त श्रावस्ती के सुमन श्रेष्ठी का पुत्र था। वह राजगृहक श्रेष्ठी का बहनोई था। एक बार किसी प्रयोजन से वह राजगृह आया। उस समय भगवान् बुद्ध भी राजगह के सीत-वन में विहार कर रहे थे। अनाथपिण्डिक ने वहाँ सुना, 'लोक में बुद्ध उत्पन्न हो गए हैं।' उसके मन में तथागत के दर्शनों की उत्कण्ठा जागृत हुई। राजगृहक श्रेष्ठी ने संघ-सहित बुद्ध को अपने घर दूसरे दिन के लिए निमंत्रण दिया था: अतः उसने अपने दास
और कर्म करों को ठीक समय पर खिचड़ी, भात और सूप बनाने का निर्देशन दिया। अनाथपिण्डिक ने सोचा, मेरे आगमन से यह गृहपति सब काम छोड़ मेरे ही आगत-स्वागत में लगा रहता था । आज विक्षिप्तचित्त दास व कर्मकरों को भोजन तैयार करने का निर्देशन दे रहा है; क्या यहाँ कोई विवाह होगा, महायज्ञ होगा या मगधराज श्रेणिक बिम्बिसार सपरिकर कल के भोजन के लिए आयेंगे ?
राजगहक श्रेष्ठी अनाथपिण्डिक के पास आया और उसे प्रतिसम्मोदन कर एक ओर बैठ गया। अनाथपिण्डिक ने राजगृहक श्रेष्ठी के समक्ष अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत की । राजगृहक श्रेष्ठी ने कहा-"मेरे यहाँ कल न विवाह होगा, न कोई यज्ञ होगा और न मगधराज ही भोजन के लिए आमन्त्रित किये गये हैं ; अपितु संघ-सहित भगवान् बुद्ध कल के भोजन के लिए निमत्रित किये गये हैं।" अनाथपिण्डिक सुनते ही बहुत विस्मित हुआ। उसने तीन बार साश्चर्य पूछा-'बुद्ध ?' और राजगृहक श्रेष्ठी ने उत्तर दिया-'हाँ, बुद्ध ।'
अनाथपिण्डिक ने कहा- "बुद्ध शब्द का श्रवण भी लोक में बहुत दुर्लभ है। क्या मैं ईस समय उन भगवान् अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध के दर्शनार्थ जा सकता हूँ?"
राजगहक श्रेष्ठी ने नकारात्मक उत्तर देते हए कहा-"भगवान के दर्शनों का यह उपयुक्त समय नहीं है।" अनाथपिण्डिक ने ज्यों-त्यों रात बिताई। वह बीच ही में तीन बार उठा, किन्तु, रात्रि की नीरवता को देख, चलने को उद्यत न हो सका। प्रत्यूष से बहुत पूर्व ही उठा। उस समय भी रात्रि की अधिकता थी; फिर भी वह अपनी उत्कण्ठा को रोक न सका। वह चला। नगर के शिवद्वार पर पहुँचा। द्वार बन्द था, किन्तु, उसके वहाँ पहुँचते ही देवों ने
१. आवश्यक चूणि, उत्तरार्द्ध पत्र सं० १६४; भरतेश्वर बाहुबलि, पत्र सं० २४०-२,
२५५-१ उपदेश प्रासाद, स्तम्भ ३, व्याख्यान ३६ । २. ठाणांग सूत्र, ठा० ६, उ० ३, सूत्र ६६१, पत्र ४५५-२ ।
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